भुवनेश्वर का वैताल देउल मंदिर अपनी अद्भुत संरचना के लिए जाना जाता है तथा वास्तुकला की खाखरा शैली को प्रदर्शित करता है, यह कलिंग शैली की एक उपशाखा थी जिसे विशेष रूप से तांत्रिक समूहों द्वारा स्थापित मंदिरों के निर्माण में प्रयोग किया जाता था। इसकी छत की अर्ध-बेलनाकार आकृति खाखरा शैली में निर्मित मन्दिरों की विशिष्टता है, जो दक्षिण भारतीय द्रविड़ मंदिरों के गोपुरम (द्वार) से मिलते-जुलते कहे जाते हैं। दक्षिण भारतीय प्रभाव का एक अन्य चिन्ह शिखरों की पंक्ति से आबद्ध घने स्तम्भ में भी परिलक्षित होता है। इस मंदिर का स्तंभ इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। यह आयताकार मंदिर जगमोहन के सापेक्ष समकोण पर स्थित है। तांत्रिक पूजा में हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के संयुक्त तत्व होते थे, तथा यह उपासना पद्धति देवी शक्ति अथवा स्त्री शक्ति की पूजा पर केंद्रित थी।

एक जाली के पीछे इस मंदिर की पीठासीन देवी चामुंडा की मूर्ति स्थापित है और उनके गले में खोपड़ी की एक माला है। उन्हें धनुष, साँप, ढाल, तलवार, त्रिशूल, वज्र और एक बाण पकड़े देखा जा सकता है। वह एक शव पर आरूढ़ हैं तथा उनके इर्दगिर्द एक उल्लू और सियार मौजूद हैं। इस मूर्ति के चारों ओर एक छवि वाले 15 खाने या आले बने हुए हैं। वैताल देउल में स्थापित छवियाँ सतह से उभरी हुई हैं और बारीकी से गढ़ी गई हैं। इस मंदिर का प्रारूप ओडिशा के अन्य मंदिरों से अलग है और कई लोग कहते हैं कि यह एक बौद्ध चैत्य सभागार जैसा है। इस मंदिर में स्थापित वैताल की आकृति को महाबलीपुरम के रथों से प्रेरित कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस हिंदू मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में हुआ था। मंदिर के शीर्ष पर तीन शिखर हैं, यही वजह है कि इसे तिनी-मुंडिया देउला के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह तीनों शिखर देवी चामुंडा की तीन शक्तियों - महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली का प्रतिनिधित्व करते हैं।

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