मेघालय के खास तौर पर लोकप्रिय जीवंत जड़-मूल पुल, आपस में गुत्‍थमगुत्‍था स्‍थूलकाय जड़ों से बने होते हैं। वे एक साथ कई लोगों का वज़न ढो सकते हैं और उन्हें डबल-डेकर व सिंगल-डेकर रूट ब्रिज के बतौर वर्गीकृत किया गया है। खासी लोग इन पुलों को विकसित करने में विशेषज्ञ हैं। ये सौ फीट से अधिक लंबे होते हैं और पूरी तरह कामकाजी बनने में इन्‍हें कोई 10 से 15 साल लग जाते हैं।ये पुल जीवित और विकासशील हैं, एक समय में 50 लोगों तक का भार उठाने में सक्षम हैं। जीवित पुलों की परंपरा कब और कैसे शुरू हुई, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। वर्ष 1944 के एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल जर्नल में लेफ्टिनेंट हेनरी यूल द्वारा चेरापूंजी के सोहरा में जीवित रूट पुलों का लिखित उल्‍लेख संभवत: सबसे पुराना रिकॉर्ड है।

यह जानना दिलचस्‍प है कि जीवित जड़-मूल पुल कैसे बनाया जाता है। बरगद के लचीले पेड़ की लचकदार जड़ों को उखाड़कर उन्‍हेंं किसी जलधारा या नदी में छोड़ दिया जाता है ताकि वे मज़बूत हों और बढ़ें और मनुष्यों का वज़न सह सकें। कहा जाता है कि हाथी भी इन पुलों के सहारे उस पार चले जाते हैं! रूट ब्रिज बनाने के अनेक तरीके हैं-एक तरीके में स्थानीय लोग ताज़ा जड़ें उखाड़कर उन्‍हें मचान के बिना ही कसकर बढ़ने और मज़बूत होने देते हैं। दूसरे तरीके में जड़ों को बांस या लकड़ी के मचान पर खींचकर तान दिया जाता है और बढ़ने दिया जाता है। तीसरी विधि में जड़ों को घुमाफिरा कर नदियों या जलधाराओं के किनारे लगाये गये और खोखले कर दिये गये सुपारी के पेड़ों के ज़रिये विकसित होने दिया जाता है। अंतिम, लेकिन कमतर नहीं, तरीके में जड़ों को पहले से मौजूद पुलों के साथ जोड़ा-तोड़ा जाता है। ये पुल स्‍टील के बने भी हो सकते हैं।

अब तक सबसे पुराना जीवित रूट ब्रिज, पिनरुस्‍ला के करीब है और सबसे प्रसिद्ध नॉनग्रियेट (Nongriat) गांव का डबल डेकर ब्रिज है। कुछ ऐसे स्थान जहां प्रकृति के ये अचरज देखे जा सकते हैं, वे हैं पश्चिम जैन्तिया हिल्स, बर्मा गांव, रंगथिलियांग आदि।भारत के अलावा, जीवित जड़-मूल पुल, इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप समूह में जेम्बतन अकार में, और जावा के बैंटन प्रांत में देखे जा सकते हैं।

अन्य आकर्षण