शैलीए परिष्कार और कला की पर्याय समझी जाने वाली कांजीवरम साड़ियांए सदियों से दक्षिण भारतीय महिलाओं की अलमारी का एक अभिन्न अंग रही हैं। अधिकतर शादियों और त्यौहारों के दौरान पहनी जाने वाली ये साड़ियां न केवल शानदार और सुंदर दिखती हैंए बल्कि इनका पारंपरिक महत्व भी है। इन साड़ियों की विशिष्टताए इनमें असली सोने की जरी के धागों का अत्यधिक उपयोग है। इसकी चमक और अत्यलंकृतता इसे खरीददारों की पहली पसंद बनाती हैं। इन साड़ियों को बेहतर गुणवत्ता वाले रेशम से तैयार किया जाता हैए और उनमें से अधिकांश को वजन बढ़ाने और टिकाऊ बनाने के लिए शहतूत रेशम के मजबूत धागों से बुना जाता है। यह साड़ी की चमक और टिकाऊपन को भी बढ़ाता है। यह कार्य अधिकांश दक्षिण भारतीय घरों में एक पारिवारिक विरासत का रूप ले चुका है। मजबूत रेशम के उपयोग से साड़ी को बेहतर ढंग से पहनना आसान होता हैए इससे साड़ी पहनने वाली सुंदर एवं आकर्षक दिखती है। वस्त्र की मोटाई बढ़ाने के लिए कभी.कभी कपड़े को चावल के माड़ में डुबोकर धूप में सुखाया जाता है।

कांजीवरम साड़ियों की शुरूआत पल्लव शासनकाल ;275 ईण् से 897 ईण्द्ध के दौरान हुई थी। कांचीपुरम के मंदिर शहर में जन्मींए कांजीवरम की कल्पना त्योहारों के दौरान शहर के स्थानिक भगवानए भगवान शिव की पोशाक के लिए की गई थी। एक सूती वेष्टी को ;दक्षिण भारत में पहना जाने वाला पुरूषों का पारंपरिक परिधानद्धए निपुण बुनकरों द्वाराए इस क्षेत्र में उगाए गए बेहतरीन कपास से बुना जाता हैए जो भगवान के लिए एक पवित्र चढ़ावा बन गया। जैसे.जैसे समय के साथ शासक बदलते रहेए वैसे.वैसे शहर के मंदिरों में देवता भी बदलते गए। चोल राजाओं के शासन के दौरान कांचीपुरम में अधिक से अधिक भगवान विष्णु के मंदिर बनाए गए। सूती वेष्टी को चमकीले रंग के रेशम की किनारिय़ों से सजाया और सोने के धागों से अलंकृत किया गया था। यह परिवर्धन सौराष्ट्र के कुशल बुनकरों द्वारा किया गया थाए जिनके बारे में माना जाता है कि वे सौराष्ट्र ;वर्तमान गुजरातद्ध से तमिलनाडु चले गए थे। उन्होंने कपड़े के मुख्य भाग से किनारी को जोड़ने के लियेए बुनाई की प्रसिद्ध कोरवाई तकनीक ईजाद की। धीरे.धीरेए कपास के स्थान पर रेशम का प्रयोग होने लगाए जो अत्यधिक शुद्ध और विलासी था तथा भगवान विष्णु की पूजा के लिए बेहतरीन था।

कांचीपुरम को 13वीं शताब्दी में प्रसिद्धि मिलीए जब कला और संस्कृति के महान संरक्षक माने जाने वाले विजयनगर के राजाओं ने चोलों का स्थान लिया। विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेव राय ;1509.1529द्ध ने बुनाई को बढ़ावा दिया और शाही घराने की महिलाओं के लिएए त्योहारों और शादियों में पहनने के लिये विशेष साड़ियां बनवाईं। एक स्थानीय किंवदंती के अनुसारए कांचीपुरम के रेशम बुनकर ऋषि मार्कंडे के वंशज हैंए जिन्हें देवताओं का निपुण बुनकर माना जाता था। यह कहानी शायद यहां बुनी गई साड़ियों पर बनाई गई आकृतियों से भी प्रेरित हैए जो आस.पास के मंदिरों की देवी.देवताओं की आकृतियों और धर्मग्रंथों से ली गई हैं।

कांजीवरम साड़ियों को शुभ माना जाता है और ये दुल्हन के लिए सौभाग्य लाती हैं। वे ज्यादातर दुल्हन के रंगों जैसे सिंदूरी लाल और हल्दी जैसे पीले रंग में बुनी जाती हैं। इन साड़ियों के मुथु कट्टम चेक का नमूना दूल्हा और दुल्हन के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध का प्रतीक है। इन साड़ियों में एक आधे हीरे वाला दीवार लैंप का नमूनाए जिसे अराइ मादम कहा जाता हैए पति और पत्नी के बीच समानता का प्रतिनिधित्व करता है।

यहां तक कि कांजीवरम की खरीदारी भी शादी की रस्म का एक हिस्सा हैए और दुल्हन के साजो.सामान के लिए सही साड़ी खरीदने का ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित किया जाता है।

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