शास्त्रीय कर्नाटक संगीत

कर्नाटक संगीत को दिव्य कहा जाता हैए जो श्रोताओं को एक विशिष्ट रसात्मक अनुभूति करवाता है। संगीत की इस विधा के लिए तीन आवश्यक तत्व हैंरू राग ;सूक्ष्म अंतराल के साथ सुरमयी प्रस्तुतिद्धए ताल ;गणितीय परिशुद्धता से चिह्नित लयबद्ध क्रमद्धए और भाव ;भावए अभिव्यंजनाद्ध। कलाकार अधिक गहन भागों के लिए पौराणिक ग्रंथों से प्रेरणा लेकर नृत्य करता हैए जबकि हल्के भागों के लिये आमतौर पर प्रेम.प्रसंगों का अनुसरण किया जाता हैए जिन्हें टुकड़ा कहा जाता है। श्कर्नाटकश् शब्द का उद्गम कर्नाटक संगीतम से हुआ हैए जो पारंपरिक या कूटीकृत संगीत की व्याख्या करता है। ऐतिहासिक रूप से ये रहस्यवादी कवि और संगीतकार पुरंदरदास ;1484.1564द्ध थेए जिन्होंने संगीत पर एक पाठ्यक्रम प्रस्तावित कियाए जो कालांतर में कर्नाटक संगीत बन गया।

20वीं शताब्दी में इस प्रकार के संगीत समारोह को औपचारिक रूप दिया गया था। आज इन सैकड़ों रागों को 72 मधुर रागों में बांटा गया हैए जिसमें सबसे सामान्य प्रकार का गीत कृति ;रचनाद्ध है। कृति को दक्षिण भारतीय कवि.संगीतकार त्यागराज ;1767.1847द्धए श्यामा शास्त्री और मुत्तुस्वामी दीक्षितर और उनके शिष्यों ने लोकप्रिय बनायाए जिन्हें सामूहिक रूप से कर्नाटक संगीत की ष्त्रिमूर्तिष् माना जाता है। अधिकांश गीत तीन मधुर प्रसंगों ;पल्लवीए अनुपल्लवी और चरणमद्ध पर लिखे गए हैं।

शास्त्रीय कर्नाटक संगीत

कांजीवरम साड़ी

शैलीए परिष्कार और कला की पर्याय समझी जाने वाली कांजीवरम साड़ियांए सदियों से दक्षिण भारतीय महिलाओं की अलमारी का एक अभिन्न अंग रही हैं। अधिकतर शादियों और त्यौहारों के दौरान पहनी जाने वाली ये साड़ियां न केवल शानदार और सुंदर दिखती हैंए बल्कि इनका पारंपरिक महत्व भी है। इन साड़ियों की विशिष्टताए इनमें असली सोने की जरी के धागों का अत्यधिक उपयोग है। इसकी चमक और अत्यलंकृतता इसे खरीददारों की पहली पसंद बनाती हैं। इन साड़ियों को बेहतर गुणवत्ता वाले रेशम से तैयार किया जाता हैए और उनमें से अधिकांश को वजन बढ़ाने और टिकाऊ बनाने के लिए शहतूत रेशम के मजबूत धागों से बुना जाता है। यह साड़ी की चमक और टिकाऊपन को भी बढ़ाता है। यह कार्य अधिकांश दक्षिण भारतीय घरों में एक पारिवारिक विरासत का रूप ले चुका है। मजबूत रेशम के उपयोग से साड़ी को बेहतर ढंग से पहनना आसान होता हैए इससे साड़ी पहनने वाली सुंदर एवं आकर्षक दिखती है। वस्त्र की मोटाई बढ़ाने के लिए कभी.कभी कपड़े को चावल के माड़ में डुबोकर धूप में सुखाया जाता है।

कांजीवरम साड़ियों की शुरूआत पल्लव शासनकाल ;275 ईण् से 897 ईण्द्ध के दौरान हुई थी। कांचीपुरम के मंदिर शहर में जन्मींए कांजीवरम की कल्पना त्योहारों के दौरान शहर के स्थानिक भगवानए भगवान शिव की पोशाक के लिए की गई थी। एक सूती वेष्टी को ;दक्षिण भारत में पहना जाने वाला पुरूषों का पारंपरिक परिधानद्धए निपुण बुनकरों द्वाराए इस क्षेत्र में उगाए गए बेहतरीन कपास से बुना जाता हैए जो भगवान के लिए एक पवित्र चढ़ावा बन गया। जैसे.जैसे समय के साथ शासक बदलते रहेए वैसे.वैसे शहर के मंदिरों में देवता भी बदलते गए। चोल राजाओं के शासन के दौरान कांचीपुरम में अधिक से अधिक भगवान विष्णु के मंदिर बनाए गए। सूती वेष्टी को चमकीले रंग के रेशम की किनारिय़ों से सजाया और सोने के धागों से अलंकृत किया गया था। यह परिवर्धन सौराष्ट्र के कुशल बुनकरों द्वारा किया गया थाए जिनके बारे में माना जाता है कि वे सौराष्ट्र ;वर्तमान गुजरातद्ध से तमिलनाडु चले गए थे। उन्होंने कपड़े के मुख्य भाग से किनारी को जोड़ने के लियेए बुनाई की प्रसिद्ध कोरवाई तकनीक ईजाद की। धीरे.धीरेए कपास के स्थान पर रेशम का प्रयोग होने लगाए जो अत्यधिक शुद्ध और विलासी था तथा भगवान विष्णु की पूजा के लिए बेहतरीन था।

कांजीवरम साड़ी

कवड़ी अट्टम

युद्ध के हिंदू देवता भगवान मुरुगन की श्रद्धा भक्ति में किया जाने वालाए कावड़ी अट्टम या मुख्य नृत्य एक प्रकार का धार्मिक संस्कार और बलिदान का समारोह है। हालांकिए मूलतरू यह एक अनुष्ठान हैए इस नृत्य में उच्च स्तर का समन्वय और नृत्य.संयोजन रहता है।

नृत्य की शुरुआत सदियों पहले हुई थीए जब प्राचीन तमिल समुदाय के लोग अपने भगवान के लिए अपने कंधों पर चढ़ावा लेकर लंबी तीर्थयात्राओं पर निकलते थे। कंधों पर रखा चढ़ावा एक लंबी छड़ी के एक छोर से जुड़ा होता है। कहा जाता है कि इस लंबी यात्रा में बोरियत भगाने के लिएए भक्तों ने गीत लिखना और देवताओं के लिए नृत्य करना शुरू किया। इसकी पराकाष्ठा कावड़ी अट्टम की रचना के रूप में हुई। कावड़ी अट्टम नृत्य केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था। वे नृत्य के दौरान एक लंबे डंडे के दोनों छोर से जुड़े दूध या नारियल के पानी से भरे बर्तनों का संतुलन भी बनाए रखते थे।

कवड़ी अट्टम

मयिलात्तम

दक्षिण भारत के सबसे लोकप्रिय पारंपरिक नृत्य रूपों मेंए भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र भगवान सुब्रह्मण्य की श्रद्धा.भक्ति में मयिलाट्टम धार्मिक और कलात्मक नृत्य किया जाता है। अक्षरशः अनुवाद करें तोए इसका अर्थ है मोर का नृत्यए जो कुछ हिंदू त्योहारों पर किया जाता है। कलाकार एक चोंच लगाकर मोर के रूप में तैयार होते हैंए यह चोंच एक धागे के प्रयोग से खुलती और बंद होती है। वे लकड़ी की लंबी छड़ियों पर नृत्य करते हैंए जो उनके पैरों से जुड़ी होती हैं। यह नृत्य केवल महिलाओं द्वारा किया जाता हैए जो मोर पर चढ़कर भगवान सुब्रह्मण्य के वेश में तैयार होती हैं। इस नृत्य में अद्भुत कौशल तथा गति संचालन में चपलता की आवश्यकता होती है। यह नृत्य देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर देता है। आमतौर पर यह नृत्य प्रसिद्ध त्यौहार अरातु के दौरान किया जाता है।

मयिलात्तम