त्रिवेणी घाट

तीन पावन नदियों गंगा, यमुना एवं सरस्वती (पौराणिक कथाओं के अनुसार कभी यहां बहा करती थी) के संगम पर स्थित त्रिवेणी घाट ऋषिकेश में स्नान करने का सबसे प्रसिद्ध घाट है। विभिन्न मंदिरों में जाने से पूर्व श्रद्धालु यहां पवित्र डुबकी लगाते हैं। भोर में इस घाट पर पूजा-अर्चना तथा स्नान करने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। हिंदू दर्शन के अनुसार यहां स्नान करने से मानव के सभी पाप धुल जाते हैं। 

यहां की संध्या शोभायमान होती है, जब प्रार्थना व मंत्रोचारण के साथ शानदार आरती (एक ऐसा अनुष्ठान जिसमें दीप जलाकर नदी की आरती करते हैं) होती है, जिसे ‘महा आरती’ कहते हैं तथा जो घाट पर की जाती है। आरती के दौरान नदी में बहते हुए अनेक दीप एक सुंदर दृश्य प्रस्तुत करते हैं। इस चिरप्रचलित परंपरा को देखकर हर कोई अभिभूत हो जाता है। त्रिवेणी घाट से एक लोकप्रिय पौराणिक कथा जुड़ी हुई है, जिसमें कहा गया है कि भगवान कृष्ण इस जगह पर आए तो एक शिकारी द्वारा छोड़े गए तीर से वह घायल हो गए थे। त्रिवेणी घाट के दूसरी ओर, गीता मंदिर एवं लक्ष्मी नारायण मंदिर जैसे प्रसिद्ध मंदिर स्थित हैं। पूर्वजों के लिए किए जाने वाले ‘पिंड श्राद्ध’ जैसे अनुष्ठान भी यहां पर किए जाते हैं।       

त्रिवेणी घाट

नीलकंठ महादेव मंदिर

यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, जो नीलकंठ कहलाते हैं, ऋषिकेश में यह मंदिर देखने लायक स्थल है। यह मंदिर गंगा के किनारे एक पर्वत के शिखर पर 926 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसकी वास्तुकला बहुत ही सुंदर है। 

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस स्थान पर नीलकंठ महादेव मंदिर है, यह वही जगह है जहां पर भगवान शिव ने विष पीया था। यह विष देवताओं व दानवों के मध्य अमृत की प्राप्ति के लिए हुए समुद्र मंथन के दौरान उत्पन्न हुआ था। इस विष को पीते ही शिव का कंठ नीला हो गया था। बस तभी से भगवान शिव की नीलकंठ के रूप में पूजा की जाने लगी थी। 

नीलकंठ महादेव मंदिर

भारत मंदिर

त्रिवेणी घाट के निकट भारत मंदिर स्थित है और ऐसा कहा जाता है कि यह ऋषिकेश का सबसे प्राचीन मंदिर है। ऐसा माना जाता है कि इसे ऋषि आदि शंकराचार्य द्वारा 789 ईस्वीं में बसंत पंचमी को बनवाया गया था। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है, जिनकी मूर्ति एक काले पत्थर से बनी हुई है। यह शालीग्राम के नाम से प्रसिद्ध है। यह प्रतिमा मंदिर के भीतरी कक्ष में स्थापित है। बसंत पंचमी के दिन, शालीग्राम को पावन मायाकुंड में पवित्र स्नान कराने के लिए मंदिर से बाहर निकाला जाता है। यह कुंड मंदिर के निकट ही स्थित है। उसके पश्चात इस मूर्ति को एक भव्य जुलूस के रूप में समस्त शहर में घुमाया जाता है। भगवान विष्णु की इस मूर्ति को मंदिर में पुनः स्थापित किया जाता है। मंदिर के सामने एक प्राचीन वृक्ष स्थित है, जो तीन विभिन्न पेड़ों का मिश्रण है जिनकी जड़ें आपस में उलझी हुई हैं। इनको एक दूसरे से अलग बता पाना असंभव है। ये बरगद, पीपल एवं बेल के प्राचीन वृक्ष हैं। कइयों का मानना है कि ये तीन पेड़ हिंदुओं की पावन तिकड़ी - भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु, भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस मंदिर का एक अन्य आकर्षण बुद्ध की खंडित प्रतिमा है। यह उत्खन्न के दौरान यहां से प्राप्त हुई थी जिसे एक पेड़ के नीचे रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि यह अशोक के काल की है।

हिंदुओं की पावन तिकड़ी - भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु, भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस मंदिर का एक अन्य आकर्षण बुद्ध की खंडित प्रतिमा है। यह उत्खन्न के दौरान यहां से प्राप्त हुई थी जिसे एक पेड़ के नीचे रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि यह अशोक के काल की है।

भारत मंदिर

कर्णप्रयाग

तीर्थस्थल बद्रीनाथ जाने वाले मार्ग पर स्थित कर्णप्रयाग एक सुरम्य स्थल है। यह अलकनंदा नदी के पांच संगमों में से एक है। हरियाली से भरपूर परिदृश्य एवं सफे़द झाग वाली नदी यहां की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं। किंवदंती के अनुसार भगवान कृष्ण ने महाभारत के केंद्रीय पात्र कर्ण का अंतिम संस्कार यहीं पर किया था।           

कर्णप्रयाग

देवप्रयाग

देखने में सुंदर देव प्रयाग हिमालय में नदियों के पांच पवित्र संगमों अर्थात् पांच प्रयागों में से एक है। ‘देव प्रयाग’ का शाब्दिक अर्थ पावन संगम ही है। यहां पर गोमुख से निकलने वाली भागीरथी नदी (जिसे गंगा भी कहते हैं) एवं अल्कापुरी ग्लेशियर से निकलने वाली अलकनंदा नदी का संगम होता है, जो गंगा का स्वरूप बन जाती है। यहां स्थित रघुनाथजी का मंदिर देव प्रयाग के प्रमुख आकर्षणों में से एक है।      

देवप्रयाग

तेरह मंज़िल मंदिर

त्रियम्बकेश्वर मंदिर अथवा तेरह मंज़िल मंदिर लक्ष्मण झूला के ठीक विपरीत स्थित है। इसमें एक ही छत के नीचे अनेक देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। यह अपनी अद्भुत वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। इसकी 13वीं मंज़िल से आसपास का सुंदर परिदृश्य देखने को मिलता है। इस मंदिर परिसर में एक ही छत के नीचे अनेक इष्ट देवों की प्रतिमाएं स्थित हैं। ऐसा कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने 9वीं ईस्वीं में इस मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर अपनी सुंदर वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। महाशिवरात्रि एवं श्रवण सोमवार जैसे पर्वों पर यहां आसपास के क्षेत्रों से श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है।

तेरह मंज़िल मंदिर

रुद्रप्रयाग

रुद्रप्रयाग का नाम भगवान शिव (रुद्र) के नाम पर पड़ा है, जो अलकनंदा एवं मंदाकिनी नदियों के संगम पर स्थित है। यह श्रीनगर (गढ़वाल) से 34 किलोमीटर तथा ऋषिकेश से 141 किलोमीटर दूर है। ऐसी मान्यता है कि संगीत के रहस्य में पारंगत होने के लिए संत नारद मुनि ने भगवान शिव की आराधना की थी। नारद मुनि को आशीष देने के लिए वह रुद्र अवतार में प्रकट हुए थे।

रुद्रप्रयाग का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यहां हिंदुओं के दो प्रतिष्ठित मंदिर - जगदम्बा मंदिर तथा शिव मंदिर स्थित हैं। केदारनाथ शहर, यहां से 86 किलोमीटर दूर है, जिसका श्रद्धालुओं में बहुत आध्यात्मिक महत्व है।  

रुद्रप्रयाग

ऋषिकुंड

गर्म पानी का प्राकृतिक झरना, जिसका शाब्दिक अर्थ ऋषि का कुंड है, यह प्रसिद्ध त्रिवेणी घाट के निकट स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन समय में पवित्र गंगा ने बहना बंद कर दिया था, जिस कारण से इस क्षेत्र में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। मां गंगा को प्रसन्न करने के लिए श्रद्धालुगण एवं संतों ने यज्ञ आरंभ किया। उनके अनुरोध पर देवी यमुना (माना जाता है कि वह यमुना नदी थीं जो देश की दूसरी सबसे पावन नदी मानी जाती हैं) स्वयं प्रकट हुईं। ऐसा कहते हैं कि वह हमेशा के लिए यहीं पर रुक गईं, उसके बाद से इस क्षेत्र में सूखा समाप्त हो गया। एक अन्य लोककथा के अनुसार ऋषिकुंड वह जगह है, जिसमें भगवान राम ने स्नान किया था। ऋषिकुंड के निकट स्थित रघुनाथ मंदिर भगवान राम एवं देवी सीता को समर्पित है, जिसके दर्शन करने इस क्षेत्र के आसपास से श्रद्धालुगण आते हैं। 

ऋषिकुंड