यह दक्षिण भारतीय शैली का मंदिर है, जिसे वर्ष 1851 में श्री रंगदेशिक स्वामी जी द्वारा बनवाया गया था और इसे बनाने में कांची पुरम के श्री वर्द्धराज मंदिर से प्रेरणा ली गई थी। पौराणिक कथा के अनुसार अंडाल, आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध वैष्णव संत थे, जिन्होंने ‘तिरुप्पुवाई’ (तमिल में लिखी गई तीस ‘लोंकों की एक शृंखला) की रचना की। इसमें भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति की बात की गई है। भगवान रंगनाथ के रूप में प्रकट होते हैं और यहां बसने के लिए सहमत होते हैं।
श्री रंग जी मंदिर में भगवान कृष्ण को एक दूल्हे के रूप में देखा जा सकता है, जिनके हाथ में एक छड़ी है, जो दक्षिण भारतीय विवाह पद्धति में हाथ में रखी जाती है। अंडाल उनके दाहिनी ओर हैं, जबकि उनका पवित्र वाहन गरुण उनकी बांयी ओर है। यहां आपको दक्षिण और उत्तर भारतीय परंपराओं और प्रभावों का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है। यह भारत के कुछ ऐसे मंदिरों में से एक है, जहां वैदिक रीति से अनुष्ठान किए जाते हैं।
मंदिर का मुख्य आकर्षण तीस मीटर ऊंचा गोपुरम् (प्रवेश द्वार) है और एक ऊंचा स्वर्ण स्तंभ है। मंदिर के अंदर शेषनाग पर भगवान विष्णु की एक मूर्ति भी है। यह मंदिर दस दिवसीय रथ महोत्सव के लिए प्रसिद्ध है, जो मार्च और अप्रैल के महीनों में आयोजित किया जाता है। इसी महोत्सव के दौरान भक्तगण होली भी खेलते हैं।

अन्य आकर्षण