18वीं सदी में चोग्याल ग्युरमे नामग्याल ने इस बौद्ध मठ की स्थापना की थी, जो उस समय सिक्किम के शासक थे। करीब 4500 फीट की ऊंचाई पर बनी यह मोनेस्ट्री सिक्किम की छह सबसे महत्वपूर्ण मोनेस्ट्रीज में से एक है। करमा कग्यु पंथ से संबंधित यह मठ बेहद खूबसूरत भित्तिचित्रों और पेंटिंग्स के लिए जानी जाती है। यहां से दिखने वाला विशाल पर्वतों तथा गहरी घाटियों का भव्य नजारा सैलानियों को मंत्र-मुग्ध कर देता है। इस मठ का वास्तिविक ढांचा कई साल पहले आये एक भूकंप में नष्ट हो गया था। उसके बाद सन 1977 में सरकार से आर्थिक मदद मिलने के बाद लामाओं ने इस मठ को दोबारा बनवाया था। 

अब जो नया मठ बना है, वह पिछली इमारत की तुलान में ज्यादा बड़ा और भव्य है। नया मठ बनने से प्राचीन भित्तिचित्रों को दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में संरक्षित रखा गया था। नये मठ का निर्माण पूरा हो जाने के बाद उन चित्रों को फिर से यहीं स्थापित कर दिया गया था। इस स्थान का उल्लेख फ्रेंच यात्री एलेक्जेंडरा डेविड नील के लेखों में भी मिलता है। उन्होंने ने सन 1912 की शुरूआत में यहां कुछ साल बिताये थे और उस दौरान उन्होंने तीसरे लाचेन गोम्चन की देख-रेख में बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त किया था। एलेक्जेंडरा को सिक्किम के दसवें शासक चोग्याल सिद्क्योंग तुल्कु द्वारा भगवान बुद्ध की एक प्रतिमा उपहार स्वरूप दी गयी थी, लेकिन सन 1969 में एलेक्जेंड्रा की मृत्यु के बाद बुद्ध की यह प्रतिमा मोनेस्ट्री को वापस कर दी गयी थी। यहां मठ में पहले तल पर उस महिला की कुछ फोटोज आज भी देखी जा सकती हैं। अन्य मठों की तरह यहां भी तिब्बती कैलेंडर के अनुसार 10वें महीने के 28वें और 29वें दिन एक पर्व का आयोजन किया जाता है, जिसमें यहां रहने वाले बौद्ध भिक्षु विशेष छम नृत्य प्रस्तुत करते हैं तथा अन्य आध्यात्मिक कर्म-कांडों का निर्वाह करते हैं। मौजूदा समय में करीब 260 बौद्ध भिक्षु यहां रहते हैं और नियमित रूप से वह प्रार्थना करते हैं। वर्तमान में यह मोनेस्ट्री सिक्किम की सबसे खूबसूरत मोनेस्ट्री में से एक मानी जाती है। 

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