चंबा रूमाल

नरम रेशम और मलमल से निर्मित चंबा रूमाल अपनी कढ़ाई और आकार के लिए प्रसिद्ध हैं। ये रूमाल रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों से प्रेरित होते हैं। इन पर अंकित छवियों के कुछ लोकप्रिय विषयों में गोधुली के समय गोपियों के  साथ भगवान कृष्ण हैं, घर लौटते भगवान कृष्ण और उनके चरवाहे मित्र तथा देवी राधा और भगवान कृष्ण की छवियां प्रमुख हैं। ये डिज़ाइन पहाड़ी पेंटिंग्स में इस्तेमाल किए गए कलात्मक अंकनों के समान हैं। अन्य प्रसिद्ध छवियों में शाही शिकार, अदालत के दृश्य, शादी के जुलूस और पासे के खेल चौपड़ का चित्रण है। इन रुमालों के किनारे ज्यामितीय और पुष्प आकृतियों का मिश्रण हैं। ये पारंपरिक रूप से ज्यामितीय आकृति जैसे वर्ग और समानांतर रेखाओं में पुष्प छवियों को दर्शाते हैं। इन किनारों को फ्रेम माना जाता है जिसमें एक केंद्रीय चित्र बनाया जाता है। इस कला रूप को चंबा राज्य के शासकों का संरक्षण प्राप्त था। तब तक बेहद कमज़ोर हो चुके मुगल दरबार के कलाकारों को राजा उम्मेद सिंह (1748-68) ने शरण दी, जो चंबा के परवर्ती शासक राज सिंह (1764-94)  और बाद में चरत सिंह (1794-1808) द्वारा जारी रखी गई। 

चंबा रूमाल

  चौगान

चंबा के बीचोबीच स्थित चौगान सभी पर्यटक गतिविधियों का केंद्र है। बुलंद पहाड़ों की चोटियों और हरे भरे जंगलों के बीच स्थित यह विशाल घास का मैदान इस शहर में सबसे जीवंत स्थान है। चौगान चंबा में आयोजित सभी प्रमुख मनोरंजक गतिविधियों और महत्वपूर्ण समारोहों की मेजबानी करता है। यहाँ एक चहलपहल भरा बाजार है, जो स्थानीय हस्तशिल्प, लकड़ी और धातु की कलाकृतियों, चमड़े की वस्तुओं से लेकर चंबा के प्रसिद्ध कढ़ाई वाले रूमाल और मिर्च के अचार तक सब कुछ बेचने वाली छोटी और बड़ी दुकानों से अटा पड़ा है। हर साल सात दिन तक चलने वाले मिंजर मेले के दौरान यह स्थान एक सांस्कृतिक केंद्र बन जाता है, जिसमें बड़ी संख्या में आगंतुक खरीदारी के लिए पहुंचते हैं। चौगान स्थानीय लोगों के लिए गर्मियों के मौसम के एक पिकनिक स्थल के रूप में लोकप्रिय है। 
 

  चौगान

सुईशिल्प

सुईशिल्प एक सदियों पुराना शिल्प है जिस में देवदार की सुइयों को मरोड़ कर उनसे टोकरी बुनाई की जाती है और विभिन्न उत्पादों को बनाया जाता है। जड़ी पानी, सौर और रानी चौरी के गांव सुईशिल्प के लिए प्रसिद्ध हैं। पतझड़ के मौसम के बाद, देवदार के पेड़ों से सुइयाँ गिरती हैं जो स्थानीय लोग इकट्ठा करते हैं। पारंपरिक रूप से साबुत सुइयाँ प्राप्त करने हेतु इन्हें उन जगहों से इकट्ठा किए जाते हैं, जहां कोई नहीं गया हो। इन्हें हाथ से या बगीचे के कांटे द्वारा एकत्र किया जाता है। फिर उन्हें रात भर पानी में भिगोया जाता है ताकि वे कोमल और नरम हो जाएं और जब उन्हें सिलना या कुंडलित करना हो तो उन्हें मोड़ना आसान हो जाए। जो उत्पाद बनाया जा रहा है, उसके आधार पर एक छोर पर सुइयों की घुंडी को वैसे ही छोड़ दिया जाता है या हटा दिया जाता है। बुनना, मरोड़ना और कुंडलित करना तीन सबसे आम तकनीकें हैं जिनका इस्तेमाल मेजपोश, मेज की चटाई, टोकरी और गहनों जैसे उत्पाद बनाने के लिए किया जाता है। यह सुइयाँ हिंसार, जिंजारो, थर्मोल और हिंगलोदा जैसे स्थानीय पौधों का उपयोग कर के गहरे भूरे और पीले रंग में रंगी जाती हैं।

सुईशिल्प

चंबा पेंटिंग

रावी घाटी में स्थित चंबा पहाड़ी चित्रों का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। दक्खन और गुजराती शैलियों से प्रेरित तथा मुगल चित्रों के समान दिखने वाली चंबा पेंटिंग्स पर बसोहली शैली का लंबे समय तक ज़बर्दस्त प्रभाव रहा है, जिसने बाद में गुलेर चित्रकला परंपरा को जन्म दिया। यद्यपि  इस बात की पुष्टि नहीं है कि चंबा में चित्रकला कब प्रारंभ हुई थी, लेकिन स्थानीय लोगों का दावा है कि यह सब 17 वीं शताब्दी में शुरू हुआ था। उस समय चंबा में संभवत: कला की कोई कार्यशाला तो मौजूद नहीं थी लेकिन कुछ कलाकार अवश्य थे, जो उस युग के राजकुमारों के चित्र बनाते थे। शायद कुछ कलाकार 17 वीं शताब्दी की पहली छमाही के दौरान नूरपुर से चंबा चले गए थे। यह भी कहा जाता है कि जहाँगीर के काल के मुगल चित्रों से समानता रखने वाले चित्रों की प्राकृतिक शैली पहले नूरपुर और बाद में चंबा में प्रस्तुत की गई। ये विस्थापित कलाकार या चित्रकार संभवतः ऊँचे दर्जे के कलाकार नहीं थे, इसलिए इसने धीरे-धीरे एक शैली को जन्म दिया, जो पहाड़ी शैली से प्रभावित थी और चटख रंगों से भरपूर थी। उदाहरण के लिए, 18 वीं शताब्दी की शुरुआत में इन चित्रों में चेहरे के भाव भारी हो गए जो बाद में एक लंबे चेहरे के रूप में बदल गए और कुछ दशकों तक प्रचलित रहे। 18 वीं शताब्दी के मध्य तक, चंबा के चित्रों की अपनी विशिष्ट शैली निर्मित हो गई थी जैसा कि उस अवधि के हस्ताक्षरित और चित्रों में देखा जा सकता है। आम तौर पर सादी पृष्ठभूमि वाले इन चित्रों की सामान्य विशेषताओं में त्रिकोणीय पत्ते और पंक्तियों में सजे पेड़ शामिल हैं। जिन उल्लेखनीय शहरों में इस चित्रकला शैली का विकास हुआ, उनमें नूरपुर, चंबा, कांगड़ा, गुलेर, मंडी, गढ़वाल, मनकोट और बसोहली शामिल हैं। 

चंबा पेंटिंग

नॉर्बुलिंगका संस्थान

धर्मशाला के हिमालयी हृदय स्थल में स्थित यह अनूठा संस्थान तिब्बती संस्कृति की कलात्मक वंशावली और इसकी पारंपरिक अखंडता के संरक्षण के लिए समर्पित है। इस संस्थान के बारे में एक उल्लेखनीय तथ्य अनुकूलन क्षमता और सातत्य की कला सीखने के प्रति इसका दृष्टिकोण है ताकि परंपराएं संरक्षित भी रहें और आधुनिक समय के अनुकूल भी हो सकें। नॉर्बुलिंगका 300 से अधिक लोगों का एक विविध समुदाय है, जिसमें शिक्षक और उनके प्रशिक्षु, विद्वान और छात्र, प्रशासक और अस्पताल कर्मचारी शामिल हैं। नॉर्बुलिंगका की एक खुली नीति है जो सभी को विभिन्न कार्यशालाओं और पाठ्यक्रमों के माध्यम से सीखने के अनुभव प्रदान करती है तथा पारंपरिक तिब्बती अनुभव को सभी के लिए सुलभ बनाती हैं। 

इस संस्थान में एक गैलरी है जिसमें कुशल कलाकारों द्वारा तैयार किए गए घरेलू सामान, चित्रकलाएँ और मूर्तियों से लेकर फैशन के सामान और डिजाइनर बैग तक मौजूद हैं। 

नॉर्बुलिंगका संस्थान

अंद्रेटा कलाकार ग्राम

एक प्रतिष्ठित विरासतीय क्षेत्र, अंद्रेटा कलाकार ग्राम, रंगमंच, मिट्टी के बर्तनों और कला का केंद्र है। बर्फ से ढकी धौलाधार श्रृंखला और और शिवालिक के बाँस के झुरमुटों से घिरे इस गाँव में असली सुंदरता मौजूद है। इस अद्भुत गांव के विकास का श्रेय एक युवा आयरिश महिला नोरा रिचर्ड्स को जाता है, जो आजादी के पूर्व भारत के इस गांव में आई थीं। उनकी शादी फिलिप रिचर्ड्स से हुई, जो लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में प्रोफेसर थे। वह पहली बार 1908 में तब के एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र लाहौर पहुँची थीं, और प्रसिद्ध दयाल सिंह कॉलेज के उप-प्राचार्य बनीं। अपने पति की मृत्यु के बाद इंग्लैंड लौटने से पहले उन्होंने इस शहर में पंजाबी थिएटर स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई। वह 1920 में अंद्रेटा आईं और इस क्षेत्र में थिएटर को पुनर्जीवित करने के लिए मुहीम शुरू की। यहीं पर उन्होंने वुडलैंड एस्टेट स्थापित किया, जो अब सभी क्षेत्रों के कलाकारों के लिए एक लोकप्रिय गंतव्य है। इसी गांव में चित्रकार बीसी सान्याल और लाहौर विश्वविद्यालय में फिलिप रिचर्ड्स के शिष्य रहे जय दयाल सिंह ने 1940 के दशक के दौरान निवास किया। सान्याल ने नोरा सेंटर फॉर आर्ट्स और एक रिजॉर्ट के लिए धन इकठ्ठा करने के लिए कला प्रदर्शनियों का आयोजन शुरू किया। प्रसिद्ध चित्रकार सोभा सिंह, जो सिख धार्मिक चित्र बनाने के लिए मशहूर रहे हैं, 1986 में अपनी मृत्यु तक यहीं रहे। 

अंद्रेटा कलाकार ग्राम

शॉल बुनाई

ऊन बुनाई इस राज्य के लगभग हर घर में प्रचलित एक लोकप्रिय शिल्प है। चंबा अपने चौखानेदार ऊनी शॉल के लिए प्रसिद्ध है जो हथकरघों पर बुना जाता है। इन शॉलों को उनके चमकदार किनारों के लिए जाना जाता है जो पारंपरिक डिजाइन और हिमाचली आकृतियों से सुसज्जित होते हैं। वही आकर्षक आकृतियाँ प्रसिद्ध चम्बा टोपियों पर भी देखी जा सकती हैं। चंबा की खूबसूरत शॉलों को उनकी बेहतरीन गुणवत्ता और आकर्षक ज्यामितीय डिजाइन के लिए जाना जाता है। ये आकर्षक पैटर्न नीले से लेकर केसरिया और हरे रंगों का उपयोग करके तैयार किए गए रंगीन ऊनी धागों से बनाए जाते हैं। इस शॉल-बुनाई में मुख्य कौशल यह है कि बुनकर को करघे पर उचित दबाव बनाए रखने में भी सक्षम होना चाहिए ताकि बुनाई एक समान हो। एक कलाकार को इस पारंपरिक शिल्प में महारत हासिल करने में कई साल लग जाते हैं। चंबा की यात्रा करते समय, पर्यटक चौगान बाजार और हिमाचल एम्पोरियम जैसे विभिन्न स्थानों पर इन शॉलों की खरीदारी कर सकते हैं। 

शॉल बुनाई