तवांग मठ, पूरी घाटी का सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र है। समुद्र तल से लगभग 10,000 फीट की ऊंची एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित, यह मठ भारत का सबसे बड़ा मठ है। इसके दक्षिण और पश्चिम में गहरी खाइयां हैं, उत्तर में एक संकीर्ण रिज और पूर्व की ओर हल्की सी नियमित ढलान है। सर्दियों में, जब यह बर्फबारी से ढक जाता है, तो इसकी सुंदरता और भी बढ़ जाती है। इस राजसी मठ में, उत्तर की ओर से काकालिंग गेट के रास्ते प्रवेश किया जा सकता है, जो एक झोपड़ीनुमा संरचना है पर जिसकी दीवारों पत्थरों से बनी हैं। काकालिंग की छत, या अंदरुनी छत पर मंडल या 'काईंग-खोर' चित्रित हैं, जबकी अंदर की दीवारों पर संतों और देवताओं के अनेक चित्र अंकित हैं। काकालिंग के बाद, मठ का मुख्य द्वार आता है, जो इसकी उत्तरी दिशा में है। इसकी पूर्वी दीवार लगभग 925 फीट लंबी है। इस मठ का एक और प्रमुख आकर्षण है, भगवान बुद्ध की सोने की 25 फुट ऊंची प्रतिमा, जिसमें भगवान बौद्घ एक कमल रूपी सिंहासन पर बैठे हैं और उनके अगल-बगल में उनके दो मुख्य सेवक मौदगल्यायन और सारिपुत्र हैं, और दोनो के हाथों में एक डंडा और एक भिक्षा पात्र है। तीन मंजिला तवांग मठ, 925 फीट (282 मीटर) लंबी परिसर की दीवार से घिरा है और इसमें 65 आवासीय भवन हैं। यहां एक पुस्तकालय भी है, जिसमें मुख्य रूप से कंग्युर और तेंग्युर के मूल्यवान प्राचीन हस्तलेख हैं।

यह मठ एक महान ऐतिहासिक महत्व का है और इसकी स्थापना सन् 1681 में, 5वें दलाई लामा, न्गावांग लोबसांग ग्यात्सो की इच्छा अनुरूप की गई थी। तवांग का शाब्दिक अर्थ है घोड़े द्वारा चुना जाना, और ऐसा कहा जाता है कि इस मठ के स्थल का चुनाव एक घोड़े ने ही किया था। उस घोड़े के स्वामी और इस मठ के संस्थापक, मेरा लामा लोड्रे ग्यात्सो (Mera Lama Lodre Gyatso) थे। छठे दलाई लामा, त्सांग्यांग ग्यात्सो (Tsangyang Gyatso) का जन्म तवांग में हुआ था, जिसके चलते यह तिब्बती बौद्धों के लिए एक प्रमुख पवित्र स्थल बन गया। तवांग मठ को तिब्बती भाषा में गाल्देन नाम्गे ल्हात्से (Galden Namgey Lhatse) के रूप में जाना जाता है, जिसका मतलब है तारों भरी रात का आकाशीय स्वर्ग। यह मठ, मूल रूप से गेलुग्पा संप्रदाय का है।

अन्य आकर्षण