कांथा भारत में कढ़ाई के सबसे पुराने रूपों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति पूर्वण्वैदिक काल में हुई थी। इसमें कलात्मक रुप से सूती या रेशमी कपड़े पर फूलए पक्षीए जानवर और ज्यामितीय आकृतियां बनाने के लिए टांके लगाए जाते हैंए जिसका उपयोग साड़ी और धोती बनाने के लिए किया जाता है। आजकल पांच या छह कपड़े की परतों को एक साथ सिल कर कंबल और रजाई भी बनाए जा रहे हैं।पहले के समय में बनाई जाने वाली कलाकृतियों में सूर्यए जीवन के वृक्ष और ब्रह्मांड जैसे प्रतीक शामिल थे। बाद में जब कला पर हिंदू धर्म का प्रभाव पड़ाए तो इसमें देवताओं और समारोहों के चित्र भी शामिल हो गये। इसमें देवीण्देवताओंए जन्म और पूजा के समारोहों के डिजाइन प्रचुर मात्रा से देखे जा सकते हैं।संस्कृत में कांथा शब्द का अर्थ है श्चिथड़ेश्ए और इस प्रकार की कढ़ाई की शुरुआत का मुख्य उद्देश्य पुरानी सामग्री का पुनः उपयोग करना था। इस कढ़ाई के विकास का श्रेय बंगाल की ग्रामीण गृहिणियों को दिया जा सकता हैए जिन्होंने अपने परिवारों के लिए रजाईयांए साड़ियांए धोती और रूमाल बनाए। हालांकिए इसकी मान्यता समय के साथ हल्की पड़ती चली गई थीए लेकिन 1940 के दशक में ललित कला क्षेत्र के प्रसिद्ध संस्थान श्कला भवन इंस्टीच्यूट ऑफ फाइन आर्ट्सश् ने इसे पुनर्जीवित किया।आजए कांथा साड़ियां पूरे राज्य में प्रतिष्ठित हैं और इन्हें बनाना बहुत बारीक काम है और जिसमें ज्यादा श्रम बल की आवश्यकता होती है। ये साड़ियां बंगाल की निशानी है और अगर आप यहां से गुजर रहे हैं तो इन साड़ियों को अवश्य ही खरीदें।

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