वस्त्र

गोवाहाटी अपनी अन्य खूबियों के साथ-साथ सिर्फ यहां मिलने वाले दुर्लभ मुगा सिल्क के लिए भी जाना जाता है। असम में पाये जाने वाले एक खास किस्म के रेशम के कीड़े से तैयार किया जाने वाला मुगा सिल्क पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। इस सिल्क से बनी साड़ियां अपनी चमक, शानदार नरम अहसास और टिकाऊपन के लिए प्रसिद्ध होती हैं। कहा जाता है कि आप जितनी बार यह साड़ी धोते हैं, उतनी बार इसमें मौजूद प्राकृतिक सुनहरी चमक और बढ़ जाती है। इस सिल्क का इस्तेमाल पारंपरिक असमी वेशभूषा मेखला चादोर को बनाने में भी किया जाता है, जिसे यहां की महिलाएं बड़े चाव से पहनती हैं। पूरे गवाहाटी में मुगा सिल्क साड़ियों की अनेकों दुकानें हैं, जहां से सैलानी इसकी खरीददारी कर सकते हैं। 

वस्त्र

सत्रीया नृत्य

भारत के प्रसिद्ध आठ शास्त्रीय नृत्यों की विधाओं में से एक है सत्रीया नृत्य, जिसे असम का गौरव कहा जाता है। इस नृत्य में हाथों और आंखों की मुद्रा-भंगिमाओं का विशेष इस्तेमाल होता है। गोवाहाटी, विश्व के सबसे सम्मानीय और चुने हुए सत्रीय कलाकारों का केन्द्र है, जो पौराणिक कथाओं को अपनी विशेष नृत्य शैली के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इस नृत्य के दौरान बजाया जाने वाला संगीत शास्त्रीय संगीत रागों पर आधारित होता है, जिसे बोरगीट्स के नाम से जाना जाता है। नृत्य की यह शैली बौद्ध मठों में नियमित रूप से बौद्ध भिक्षुओं द्वारा भी प्रस्तुत की जाती है। गोवाहाटी में ऐसे अनेकों प्रशिक्षण केन्द्र हैं, जहां इस अनूठे नृत्य का प्रशिक्षण दिया जाता है और यदि आप लंबे समय के लिए इस क्षेत्र में ठहरने के लिए आ रहे हैं तो आपको भी यह नृत्य जरूर सीखना चाहिये। 

सत्रीया नृत्य

धातु शिल्प

धातु से बनी खूबसूरत कलात्मक वस्तुएं असम की विशेषता हैं। अपने मनमोहक डिजाइन और टिकाऊपन की वजह से पर्यटकों तथा स्थानीय निवासियों द्वारा बहुत पसंद की जाती हैं। यहां के कुशल कारीगर पीतल और मिश्रित धातु से बेहद खूबसूरत बर्तन भी बनाते हैं। असम आ रहे हैं तो रोजाना के इस्तेमाल में आने वाले बर्तनों के साथ-साथ आप शोराई और बोटा जरूर खरीदें। इस पारंपरिक बर्तन का इस्तेमाल त्यौहारों और खास अवसरों पर मेहमानों के सामने पान और सुपारी पेश करने में किया जाता है। सन 1228 से लेकर 1826 तक यहां आहोम शासकों का राज था और यह बात बेहद चौंकाने वाली लगती है कि उस समय यहां सोने और चांदी से बर्तन तथा अन्य वस्तुएं बनाई जाती थीं।

धातु शिल्प

मुखौटे

स्थानीय भाषा में मुख कहे जाने वाले यह मुखौटे असमी सभ्यता एवं संस्कृति का प्राचीन अंग हैं। इन मुखौटों का इस्तेमाल मुख्य रूप से लोक कथाओं को नाटक के रूप में प्रस्तुत करते हुए किया जाता है। आमतौर पर टैराकोटा, धातु, बांस और लकड़ी से बने यह मुखौटे स्थानीय देवी-देवताओं के स्वरूप में बनाए जाते हैं, जिन्हें रंगों और नक्काशी से सजाया जाता है। इन मुखौटों में महाभारत और रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथों के पात्र मुख्य रूप से बनाए जाते हैं। अपने आकार के अनुसार इन मुखौटों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है, जिन्हें छो, लोटोकोई और मुख कहते हैं। असम के गांवों में रहने वाले लोगों के लिए मुखौटे बनाने की यह कला उनकी गुजर बसर का एक महत्वपूर्ण जरिया है, जिसे यहां हर वर्ग का कलाकार अपनाता है। एक मुखौटा बनाने में कलकार को करीब 10 से 15 दिन का समय लग जाता है, जिसमें वह बांस की पतली-पतली पट्टियों से पहले मुखौटे का ढंाचा तैयार करता है और फिर उस पर मिट्टी में भिगोये हुए छोटे-छोटे कपडों के टुकड़ों की परतें चढ़ाता है। जब एक ढांचा तैयार हो जाता है तो उसे धूप में अच्छी तरह से सूखने के लिए रख दिया जाता है, जिस पर बाद में चटख रंगों से खूबसूरत डिजाइन बनाए जाते हैं। 

मुखौटे

जपी

असम आने वाले पर्यटक यहां से यादगार के रूप में सिर पर पहनने वाली एक विशेष प्रकार की टोपी सबसे ज्यादा लेकर जाते हैं, जिसे जपी या जापी कहते हैं। असम में बेशक यह सिर पर पहनी जाती है, लेकिन देश-विदेश से आने वाले सैलानी इसे एक सजावट की वस्तु के तौर पर भी खरीदकर लेकर जाते हैं। शंकुकार आहार में बनी जपी टोपियां यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। असम आने वाले सभी प्रसिद्ध और गणमान्य व्यक्तियों को यह टोपी सम्मान के रूप में भेंट की जाती है। 

यह रंग-बिरंगी टोपी आकार में बहुत बड़ी होती है और किसी जमाने में किसान तथा ग्वाले तेज धूप और बारिश से बचने के लिए इसे पहना करते थे। जपी, दो तरह से बनाई जाती है। बड़े आकार की जपी को हालुवा जपी कहते हैं जो किसानों द्वारा पहनी जाती है जबकि गोरोखिया जपी आकारा में अपेक्षाकृत छोटी होती है, जिसे ग्वाले पहनते हैं। वैसे देखा जाए तो असम की संस्कृति में अलग-अलग प्रकार की टोपियों का विशेष महत्व रहा है। मसलन, पवित्र धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर उत्सवों में नृत्य करते बिहु लोक नृतक तक सभी सिर पर टोपी पहनते हैं। जपी टोपियों को खूबसूरत बनाने के लिए उन पर रंग-बिरंगे कपड़ों को टुकड़े सिले जाते हैं। और यदि आप जा रहे हैं तो वहां से जपी टोपी खरीदना जरूर याद रखें। 

जपी

बिहु लोक संगीत

असमिया संगीत में बिहु संगीत का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, जिसमें असमी नव वर्ष, किसानों की दिनचर्या तथा प्रेम संगीत सहित अनेकों अवसरों पर गाये जाने वाले गीत मिलते हैं। बिहु लोक संगीत- ढोल, मोहोर सिंगोर पेपे, झांझ, गुगुना और टोका नाम के बांस से बने वाद्य-यंत्रों द्वारा बजाया जाता है। दरअसल, बिहु संगीत पर प्राचीन पूर्वी प्रभाव देखने को मिलता है। बिहु पर्व के दौरान जब पूरा प्रदेश उत्सव के माहौल में रंगा होता है तब इन दिल छू लेने वाले गीतों को सुनने का अपना एक अलग ही आनंद होता है। प्रदेश के प्रतिभावान संगीतकार पीढ़ीयों से इस पारंपरिक संगीत को सुनते, सुनाते और सिखाते आ रहे हैं जो हर पर्यटक के लिए एक बेमिसाल अनुभव की तरह है। 

बिहु लोक संगीत

बरपेटा का भोरतल नृत्य

असम के सबसे अधिक ऊर्जावान नृत्यों में से एक बरपेटा का भोरतल नृत्य एक बेहद शानदार नृत्य है, जिसमें कलाकार अपने सधे हुए कदमों और स्पष्ट भाव-भंगिमाओं के माध्यम से नृत्य का भाव प्रस्तुत करते हैं। यह नृत्य प्रसिद्ध जिह्या नोम धुनों पर किया जाता है, जिसमें झांझ के तेज स्वर का महत्पूर्ण योगदान होता है। इस नृत्य की शुरूआत विश्व विख्यात सत्रीय कलाकार नाराहारी बुरहा भक्त ने की थी। इस नृत्य में छह से आठ नृतक ताल से ताल मिलाते हुए नृत्य करते हैं और विशेष मौकों पर यह नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। 

बरपेटा का भोरतल नृत्य

बेंत और बांस

असम में रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली वस्तुओं में बेंत और बांस का इस्तेमाल सबसे ज्यादा किया जाता है। क्योंकि यह दोनों इस प्रदेश में प्रचुरता में पाये जाते हैं। यहां के कुशल कारीगर बेंत और बांस से बेहद खूबसूरत और रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली चीजें, टोकरियां और वाद्य-यंत्र बनाते हैं। अयम में बांस का इस्तेमाल घरों को बनाने तथा घरों के आगे बाड़ लगाने में भी किया जाता है। असमी लोग बांस से बनने वाली यह तमाम चीजें किसी मशीन की मदद से नहीं, बल्कि अपने हाथों से ही बनाते हैं। बेंत और बांस का इस्तेमाल बनाई के उपकरण बनाने के लिए भी किया जाता है। यहां वाले पयर्टकों को यहां के हस्तशिल्प दुकानों से इन खूबसूरत वस्तुएं की खरीददारी जरूर करनी चाहिये।

बेंत और बांस

बिहु नृत्य

असम का जिक्र हो और बिहु नृत्य का जिक्र न आये, तो बात अधूरी सी रह जाती है। क्योंकि यह नृत्य उत्तर-पूर्व क्षेत्र की पहचान का पर्याय बन चुका है। यदि असम के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि पहली बार बिहु नृत्य का प्रदर्शन सन 1694 में किया गया था। उस समय यहां आहोम शासक रुद्रसिंहा (1696 से 1714) का शासन था, जिन्होंने बिहु नृतकों को रोंगली बिहु के खास पर्व पर आमंत्रित किया था। मुख्यतः अप्रैल माह में मनाये जाने वाले सालाना बिहु जलसे में यह नृत्य प्रस्तुत किया जाता है और असम का यह सबसे प्रचलित लोक नृत्य है। हर्ष और उल्लास का प्रतीक यह नृत्य पूरी तरह से पारंपरिक वेशभूषा में किया जाता है, जिसमें स्त्री और पुरुष समान रूप से हिस्सा लेते हैं। यहां के स्थानीय लोक संगीत की थाप पर नृतकों के कदम ताल से ताल मिलाते हुए थिरकते हैं, तो दर्शक उन्हें देखते ही रह जाते हैं। बिहु नृत्य असम के विभिन्न जातीय समूहों जैसे देओरी, सोनोवाल कछारी, मरान, बोराही आदि की परंपरा का अभिन्न अंग है। राज्य में बिहु नृत्य के तीन उत्सव- रोंगली बिहु, कोंगली बिहु और भोगल बिहु, मनाये जाते हैं, जिनमें से रोंगली बिहु के दौरान वसंत के आगमन की खुशी में बिहु नृत्य युवा महिलाओं और पुरुषों द्वारा किया जाता है। यह नृत्य करते समय कलाकार पारंपरिक मेखला चादोर पहनते हैं, जिसमें मेखला को कमर के नीचे के हिस्से पर लपेटा जाता है, जबकि चादोर को शरीर के ऊपरी हिस्से पर शाल की तरह ओढ़ते हैं। यह पारंपरिक वेशभूषा मुख्यतः प्रसिद्ध असम सिल्क मूंगा या मूगा से बनाई जाती है। महिला नृतक खुद को पारंपरिक आभूषणों से सजाती हैं तथा अपनी चोटी में रंग-बिरंगे फूल गूंथती हैं। अपनी विशिष्ट शैली की वजह से यह नृत्य ना केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी बहुत प्रसिद्ध है और सन 2012 में लंदन में हुए ओलंपिक खेलों में असमिया लोक नृतकों द्वारा बिहु नृत्य प्रस्तुत किया गया था। 

बिहु नृत्य