सिद्धवट

क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित एक विशाल बरगद के पेड़ को सिद्धवट कहा जाता है। सिद्धवट का उज्जैन में वही धार्मिक महत्व है जो वृंदावन में वंशीवट और गया में अक्षयवट का है। माना जाता है कि इस सिद्धवट को देवी पार्वती ने लगाया था। देवी पार्वती यहां तपस्या करने आई थी, उस समय उन्होंने इस वट वृक्ष को यहां लगाया था। इसे पाप-मोचन (पाप शोधक) तीर्थ के रूप में पूजा जाता है। यहां साल भर पूजा और ध्यान करने नाथ पंथी संत आते हैं। तीर्थयात्रियों और आगंतुकों के आराम के लिए पास में एक रेस्तरां है। भक्त पवित्र क्षिप्रा नदी में स्नान करते हैं। ऐसा माना जाता है कि स्नान से उनके सारे पाप धुल जाते हैं। मंदिर तड़के सुबह 4 बजे ही खुल जाता है। बहुत सारे सैलानी सर्व पितृ अमावस्या पर अपने मृतक परिजनों की शांति के लिए प्रार्थना करने यहां आते हैं।

सिद्धवट

मंगलनाथ मंदिर

शहर के बाहरी इलाके में स्थित, मंगलनाथ मंदिर पर्यटक सर्किट के सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है। मंदिर के मुख्य देवता भगवान शिव या महादेव हैं, जिनकी पूजा दूरदराज से यहां आकर भक्त करते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार, मंगलनाथ मंदिर को मंगल का जन्म स्थान माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन काल के दौरान, मंदिर मंगल ग्रह के स्पष्ट अवलोकन के सर्वश्रेष्ठ स्थानों में से एक और खगोल विज्ञान के अध्ययन के लिए सटीक स्थान था। क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित, इस मंदिर के बारे में लोगों का यह विश्वास है कि यह मंदिर सैलानियों को उनकी नकारात्मक ऊर्जा और समस्याओं से छुटकारा दिलाता है। आगंतुक यहां से पवित्र क्षिप्रा नदी के सुरम्य और मनोहारी दृश्य देख सकते हैं।

मंगलनाथ मंदिर

गोपाल मंदिर

बाजार चौक में स्थित, गोपाल मंदिर मराठा वास्तुकला का एक शानदार उदाहरण है। इसका निर्माण 19 वीं शताब्दी में महाराज दौलत राव शिंदे की रानी बायजीबाई शिंदे ने कराया था। एक विशाल संगमरमर की संरचना के ऊपर निर्मित यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है। इस मंदिर का पवित्र गर्भगृह संगमरमर निर्मित है। इसमें रत्न जड़ित, चांदी की परत वाले दरवाजे हैं। इसके भीतरी गर्भगृह को गजनी ले जाया गया था। इसके बाद, इसे महमूदशाह अब्दाली द्वारा लाहौर ले जाया गया। पवित्र गर्भगृह में भगवान कृष्ण (काली) और देवी राधा (सफेद) की मूर्तियां हैं। मुख्य मूर्ति के दोनों ओर देवी रुक्मणी और शिव पार्वती की प्रतिमाएं भी हैं। भद्रकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर मंदिर में एक भव्य उत्सव का आयोजन किया जाता है।

गोपाल मंदिर

गोमती कुंड

गोमती कुंड, संदीपनी आश्रम के पानी का मुख्य स्रोत है। शांत वातावरण के बीच स्थापित यह एक पानी की टंकी है। माना जाता है कि इस कुंड के पवित्र जल के दर्शन और प्रार्थना करने से भक्तों की समस्याओं का समाधान हो सकता है। एक किंवदंती के अनुसार, भगवान कृष्ण ने प्रार्थना अनुष्ठानों में अपने गुरु की सहायता के लिए विभिन्न तीर्थस्थलों से पवित्र नदियों का जल यहां एकत्र किया। यहां बहुत सारे बंदर भी रहते है! संदीपनी आश्रम का नाम भगवान कृष्ण और उनके भाइयों के गुरु के नाम पर रखा गया। आश्रम में भगवान शिव का एक मंदिर है, जिसका दर्शन कुंड जाते समय अवश्य करना चाहिए। इस मंदिर में नंदी (वृषभ देवता) की आकृति भगवान शिव के सामने पहरा देती है।

गोमती कुंड

गडकालिका मंदिर

शहर से बहुत थोड़ी दूर स्थित, गडकालिका मंदिर देवी कालिका को समर्पित है। किंवदंती है कि कवि कालिदास, हालांकि जो औपचारिक रूप से अशिक्षित थे, लेकिन इसी देवी के आशीर्वाद से अद्वितीय साहित्यिक ज्ञान और कौशल प्राप्त कर सके। कालीदास कालिका देवी के समर्पित भक्त थे। देवी कालिका सार्वभौमिक ऊर्जा की प्रतीक हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर, भक्तों को पत्थर से बने शेर की एक मूर्ति के दर्शन होते हैं, जिसका मुंह उस देवता की ओर है, जिसके सिर पर केसरिया रंग की नक्काशी वाला चांदी का मुकुट है। इस मंदिर में पिरामिड के आकार का एक खोखला गुंबद है, जिसमें परतदार नक्काशी की गई है। मंदिर के चारों ओर मोटे साधारण बार्डर हैं, जिन पर भूरे रंग से नक्काशी की गई है। मंदिर परिसर के भीतर जाकर भक्त भगवान गणेश की मूर्ति पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर सकते हैं। हालांकि मंदिर का निर्माण कब हुआ? यह अब तक अज्ञात है। इसकी मरम्मत एक बार 7वीं शताब्दी ईस्वी में वर्धन वंश (606-647 शताब्दी) के शासक सम्राट हर्षवर्धन द्वारा और परमार काल (9 वीं से 14 वीं शताब्दी) में कराई गई थी। मंदिर की वर्तमान संरचना और इसका मौजूदा आकार, ग्वालियर के तत्कालीन राज्य द्वारा दिया गया।

गडकालिका मंदिर

महाकालेश्वर मंदिर

देशभर के 12 ज्योतिर्लिंगों में एक, महाकालेश्वर मंदिर, भगवान शिव को समर्पित है। यह उज्जैन के सबसे प्रमुख मंदिरों में से एक है। महाकालेश्वर मंदिर के भूमिगत कक्ष में लिंगम (भगवान शिव का प्रतीकात्मक रूप) का निवास है और ऐसा माना जाता है कि यहां वे स्वयंभू या स्वयं प्रकट हुए हैं। वर्तमान समय में यह मंदिर पांच मंजिला है। 18 वीं शताब्दी में यहां मध्य मार्ग का निर्माण किया गया था। भूमिजा, चालुक्य और मराठा वास्तुकला की शैलियों में निर्मित, यह मंदिर वास्तुशिल्प का एक चमत्कार है। इसके पैदल मार्ग संगमरमर के हैं जो 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सिंधियों द्वारा बनवाए गए थे। इस मंदिर के तीन मंजिलों पर क्रमशः महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर और नागचंद्रेश्वर का निवास है। नागचंद्रेश्वर लिंग का दर्शन भक्तों के लिए केवल नाग पंचमी के अवसर पर सुलभ है। परिसर में एक कुंड (तालाब) भी है जिसे कोटि तीर्थ कहा जाता है, जिसे सर्वतोभद्र शैली में बनाया गया है। कुंड की सीढ़ियों से मंदिर तक के मार्ग पर आपको मंदिर की मूल संरचना की कई छवियां दिखाई देंगी, जो परमारों (9 वीं और 14 वीं शताब्दी) की अवधि की भव्यता को दर्शाती हैं। रुद्र सागर के पास स्थित, मंदिर में एक विशेष भस्म आरती होती है, जहां पर सुबह 4 बजे से ही भक्तों का जमावड़ा लग जाता है। यहां की हवा में एक उत्साहपूर्ण कशिश होती है और जलते हुए सभी दीपक एक अद्भुत महक एवं आश्चर्यजनक दृश्य प्रस्तुत करते हैं।

महाकालेश्वर मंदिर

काल भैरव मंदिर

क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित काल भैरव मंदिर के बारे में माना जाता है कि इसे राजा भद्रसेन ने बनवाया था। आठ भैरवों (भगवान शिव के अवतार) की पूजा करना शैव संप्रदाय के भक्तों की एक परंपरा रही है, जिसमें काल भैरव प्रमुख हैं। स्कंदपुराण (धार्मिक पाठ) के अवंति खंड (एक अध्याय) में काल भैरव मंदिर का उल्लेख है। माना जाता है कि यहां शिव के अन्य सम्प्रदायों के अलावा, हमेशा से अघोर और कपालिक सम्प्रदाय के लोग भी पूजा पाठ करते रहे हैं। एक बार मंदिर से भगवान शिव, देवी पार्वती, भगवान गणेश और भगवान विष्णु की तस्वीरें प्राप्त की गईं थीं। वर्तमान मंदिर मराठा वास्तुकला शैली में है। मंदिर की दीवारों पर मालवा शैली में बने चित्रों के निशान आज भी दिखाई देते हैं। भैरोगढ़ गांव, जहां मंदिर स्थित है, छपाई की एक अनूठी कला के लिए भी प्रसिद्ध है।

काल भैरव मंदिर

उज्जैन सिंहस्थ कुंभ

भारत के चार हिस्सों हरिद्वार, उज्जैन, प्रयागराज और नासिक में आयोजित किया जाने वाला कुंभ मेला शायद दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक आयोजन है। यह प्रत्येक चार साल में चार शहरों में से किसी एक में आयोजित किया जाता है। उज्जैन में आयोजित होने वाले मेले को सिंहस्थ कुंभ महापर्व कहा जाता है, जो पवित्र क्षिप्रा नदी के तट पर आयोजित किया जाता है। इसकी गणना ऐसे हिंदू तीर्थस्थल के रूप होती है, जिसकी पवित्र नदी में डुबकी लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं। बहुत से भक्त इसी विश्वास से दुनिया के कोने-कोने से यहां आते हैं और क्षिप्रा के पवित्र जल में डुबकी लगाते हैं। यह मेला स्वयं में एक जीवंत और विस्मयकारी आयोजन है। संस्कृति और परंपरा में रम जाने के लिए यह मेला एक बड़ा अवसर है।

इस लोकप्रिय त्यौहार की शुरुआत के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। देवता और राक्षस (असुर) उस अमृतकलश (अमृत का कलश) के लिए लड़ रहे थे, जो उन्हें आदिम समुद्र (समुद्रमंथन) के मंथन से मिला था। राक्षस अधिक शक्तिशाली थे इसलिए देवताओं ने चारों देवों-ब्रहस्पति, सूर्य, चंद्र और शनि को अमृत कलश सौंप दिया। वे इस अमृत कलश को लेकर भाग गये ताकि असुरों से यह सुरक्षित रहे। कहा जाता है कि राक्षसों ने पृथ्वी के चारों ओर 12 दिन-रात तक इन देवताओं का पीछा किया। पीछा करने के दौरान, देवताओं ने हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में वो कलश रखे। एक अन्य किंवदंती के अनुसार माना जाता है कि देवताओं और राक्षसों के बीच एक लड़ाई हुई, जिसमें कलश फट गया और उसका अमृत इन चार स्थानों पर गिर गया।

उज्जैन सिंहस्थ कुंभ