विवेकानन्द रॉक मेमोरियल

1970 में निर्मित विवेकानन्द रॉक मेमोरियल विशेष रूप से पश्चिम बंगाल तथा तमिलनाडु की परम्परागत और आधुनिक भारतीय वास्तुकला शैली का संयोजन है। इस मूर्तीय निदर्श से सूर्यास्त और चन्द्रोदय की विलक्षण आकाशीय घटना को देखा जा सकता है। पूर्णिमा के दिनों में चन्द्रोदय और सूर्यास्त का दृश्य विशेष आकर्षण का होता है। अप्रैल की चैत पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा और सूर्य दोनों एक साथ एक ही क्षितिज पर आमने-सामने दिखाई देते हैं।इस स्मारक का प्रवेश द्वार अजन्ता तथा एलोरा गुफा मन्दिरों के समान है जबकि इसका मण्डपम बेलूर (कर्नाटक) के श्री रामकृष्ण मन्दिर के समान है। यहाँ पर प्रसिद्ध परिव्राजक की मुद्रा में स्वामी विवेकानन्द की आदमकद काँसे की मूर्ति स्थापित है। विवेकानन्द रॉक मेमोरियल के दो प्रमुख ढाँचों में से एक श्रीपद मण्डपम इसका गर्भ-गृह है जो बाहर की ओर से एक प्लेटफार्म से घिरा है। वर्गाकार हॉल में गर्भ गृह, एक आन्तरिक प्रक्रम तथा एक बाहरी प्रक्रम है।इसमें ध्यान मण्डपम, मुख मण्डपम, नमस्तुभ्यम तथा सभा मण्डपम आदि प्रखण्ड हैं। इनमें से ध्यान मण्डपम ध्यान करने का स्थान है जिसका निर्माण विभिन्न भारतीय मन्दिरों की वास्तुकला के मिश्रण से किया गया है। यहाँ के छ: कक्षों में दर्शक बैठकर आरामदेह मुद्रा में ध्यान लगा सकते हैं। सभा मण्डपम में एक मूर्ति प्रखण्ड, प्रलीमा मण्डपम, एक बाहरी आँगन तथा एक कॉरीडोर है जो मुख्य हॉल को घेरे हुए है। यहाँ स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति इस प्रकार स्थापित है की उनकी दृष्टि सीधे श्रीपदम पर पड़ती है। स्मारक के मण्डपम में विवेकानन्द की मूर्ति स्थित है और दर्शक यहाँ एक ही चट्टान (शिला) से देवी कुमारी के पदचिह्न, श्रीपद पराई के दर्शन कर सकते हैं।कन्याकुमारी मन्दिर के दक्षिण-पूर्व में लक्षद्वीप सागर के जल को प्रक्षेपित करती दो शिलाएँ-श्रीपद मण्डपम और विवेकानन्द मण्डपम हैं। कहा जाता है कि इनमें से एक पर स्वामी विवेकानन्द दो दिन तक ध्यान की अवस्था में बैठे रहे और क्वाँरी देवी कन्याकुमारी का आशीर्वाद से एक सशक्त धर्मप्रचारक बन गये।

विवेकानन्द रॉक मेमोरियल

पद्मनाभ महल

भव्य पद्मनाभ महल तिरुवनन्तपुरम से 64 किमी दूरी और नागरकोविल से 16 किमी दूरी पर थुकाले टाउन में स्थित है। यह पूर्व में त्रवनकोर के शासकों का महल था। इस महल की वास्तुकला सामान्य होते हुए भी उत्कृष्ट है। यहाँ की लगभग सभी रचनाएँ दर्शकों को मोह लेती हैं चाहे वे बेल्जियम के दर्पण हों, जटिल कसीदाकारी हो या छतों पर की गयी चित्रकारी हो या 17वीं तथा 18वीं शताब्दी के भित्ति चित्र हों, शीशम तथा टीक की लकड़ी की कसीदाकारी हो, मिट्टी का विशाल कलश हो और खिड़कियों पर रंगीन अभ्रक हों। इस महल की नृत्य शाला, राजमाता के महल, म्यूजियम, कौंसिल चैम्बर, भोजन कक्ष, आन्तरिक आँगन तथा राजगृह में कलात्मक कार्य प्रचुरता में विद्यमान हैं।एक बड़े आँगन के पार करके पश्चिमी भाग से इस महल में प्रवेश किया जा सकता है। कौंसिल चैम्बर जिसे मन्त्रशाला भी कहा जाता है, इस महल का सर्वोत्तम भाग है। इसकी खिड़कियों में रंगीन अभ्रक लगे हैं और इसके फर्श अत्यन्त सुघड़ हैं, इसके फर्श में शीशे जैसे सुन्दर समतल हैं जो चूने, नारियल, रेत, अण्डे की सफेदी, चूने तथा गुड़ से निर्मित हैं। थाई कोट्टारम नाम से प्रसिद्ध राजमाता का महल इस महल का सबसे प्राचीनतम भाग है जिसका निर्माण केरल शैली की वास्तुकाल में 1550 ई. में कराया गया था। इसकी छतों पर 90 विभिन्न प्रकार के पुष्पीय चित्र चित्रित और खुदे हुए हैं। इसमें सबसे बाद में बनाया गया महल श्रोता कक्ष है जिसका निर्माण 1829 तथा 1846 के बीच किया गया। यहाँ के भोजन कक्ष में 1,000 से अधिक व्यक्ति एक साथ भोजन कर सकते हैं। इस महल के केन्द्रीय भाग में एक चार मंजिला भवन निर्मित है। इसमें राजा का कक्ष, राजकोष गृह, राजा का शयन कक्ष जिसमें एक औषधीय वृक्षों के काष्ठ से निर्मित पलंग है जिसका निर्माण 60 विभिन्न औषधीय लकड़ियों से किया गया है। चौथी मंजिल या उपरिका मलिका में एक ध्यान कक्ष तथा शाही पूजा गृह है जिसकी दीवारें पुराणों के दृश्यों और 18वीं शताब्दी के भित्ति चित्रों से सज्जित हैं। किसी आक्रमण या आपदा के समय महल से बाहर सुरक्षित निकलने के लिए महल के परिसर में एक गुप्त मार्ग का भी निर्माण किया गया था। दक्षिणी महल अर्थात थेकी कोट्टारम में एक पुरातात्विक म्यूजियम है जिसमें फर्नीचर, ताँबें की थालियाँ, लकड़ी की मूर्तिकलाएँ, ग्रेनाइट की शिल्पकारी, प्राचीन अस्त्र-शस्त्र तथा प्राचीन काल की अन्य अनेक वस्तुएँ रखी हैं। सोमवार और राष्ट्रीय त्यौहारों को छोड़कर यह महल रोज 9 बजे प्रात: से 4.40 बजे सायं तक खुला रहता है। इसमें फर्श की पॉलिश को खराब होने से बचाने के लिए दर्शकों को अपने जूते-चप्पल उतारकर जाने की अनुमति होती है।

 पद्मनाभ महल

तिरुवल्लुवर की मूर्ति

प्रसिद्ध तमिल कवि, तिरुक्कुरल पदों के रचयिता सन्त तिरुवल्लुवर की 95 फीट ऊँची पत्थर की मूर्ति इस नगर का एक सुन्दर दर्शनीय स्थल है। शहर के निकट एक छोटे से द्वीप पर स्थित इस मूर्ति को एक 38 फीट ऊँचे आधार पर स्थापित किया गया है। इस पर तिरुक्कुरल के उपदेशों के 38 अध्यायों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसका भार लगभग 7,000 टन है। आधार सहित कुल 133 फीट ऊँची प्रतिमा तिरुक्कुरल के कुल 133 अध्यायों का प्रतिनिधित्व करती है। कहा जाता है कि यह प्रस्तर मूर्ति भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं को सहन कर सकती है। इस मूर्ति की आधारशिला तत्कालीन भारतीय प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई द्वारा 1979 में रखी गयी था किन्तु इसकी संस्थापना और शिल्पकारी का कार्य 1990 में प्रारम्भ हुआ और 1999 में यह बनकर तैयार हो गयी। इस मूर्ति के लिए 1 जनवरी, 2000 को सिरुधमूर, अम्बासमुद्रम और पट्‌टूमाला कुप्पम से लाये गये थे जिसका शुभारम्भ तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमन्त्री डॉ. एम. करुणानिधि द्वारा किया गया। इस मूर्ति के निर्माण में कुल 500 शिल्पकार लगे हुए थे जिसका नेतृत्व प्रसिद्ध वास्तुशास्त्री डॉ. गणपति सत्पथी द्वारा किया गया।

तिरुवल्लुवर की मूर्ति

वट्टकोट्टई

समुद्रतट पर स्थित 18वीं शताब्दी का यह वृत्ताकार दुर्ग ग्रेनाइट पत्थरों से बना है। अनेक वर्षों पूर्व जब यह क्षेत्र पूर्णत: साफ-सुथरा था तो यहाँ से पद्मनाभपुरम महल स्पष्ट दिखाई देता था। कहा जाता है कि इस दुर्ग से महल के बीच कभी 4 फीट चौड़ी और 25 किमी लम्बी सुरंग थी। इस किले की वास्तुकला पाण्ड्य शासकों (चौथी शताब्दी से 16वीं शताब्दी) की याद दिलाती है जिसकी दीवारों पर विशेष रूप से मछलियों की कसीदाकारी की गयी है। यदि एक ओर अरब सागर और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी को छोड़ दिया जाये तो यहाँ एक उठा हुआ परेड स्थल है। कुछ समय पूर्व पुरातत्व विभाग ने भी यहाँ पुनर्निर्माण कार्य किया था। इस किले के निकट काली रेत का समुद्र तट और एक छोटी नदी प्रमुख आकर्षण है जो समुद्र को इस किले के एक भाग से जोड़ती है।

वट्टकोट्टई

उदयगिरि किला

इस नगर का एक प्रतिष्ठित पर्यटन स्थलों में से एक उदयगिरि किला है। डे लानोय किला या दिलानी कोट्टई नाम से प्रसिद्ध यह किला त्रावणकोर के शासनकाल का अवशेष है। यह किला लगभग 260 मीटर ऊँची निर्जन पहाड़ियों से घिरा है और इसका राजा की सेनाओं के प्रशिक्षण स्थल के रूप में किया जाता था। शस्त्र निर्माण के लिए बनी हुई भट्टियों के अवशेष इसके प्रमाण हैं। कहा जाता है कि किले के परिसर में 16 फीट लम्बी पीतल की एक बन्दूक पायी गयी थी किन्तु इसे 16 हाथियों और अनेक लोगों को सम्मिलित प्रयास से भी कुछ दूरी तक भी सरकाना सम्भव नहीं हो पाया था। अब इस किले को प्राकृतिक उद्यान में परिवर्तित कर दिया गया है और इसमें अनेक वृक्ष, औषधीय बाग, पक्षी तथा हिरन के बाड़े और मत्स्यालय हैं।

इस किले का निर्माण वेनादु के शासक श्री वीर रविवर्मा (1595-1607 ई.) के शासन काल के दौरान मिट्टी से करवाया गया और बाद में मार्तण्डवर्मा (1729-1758 ई.) के शासन काल के दौरान पत्थरों से इसका पुनर्निर्माण करवाया गया। इसके निर्माण के लिए नांजिलनाडु के नत्तारों ने दान दिया था। यह किला डट कप्तान डे लानोय की छावनी था जिसे युद्ध के दौरान मार्तण्डवर्मा ने बन्दी बना लिया था और बाद में उसे यहाँ रखी तोपों सहित सैन्य साजोसामान का मुख्य कमाण्डर बना दिया। किले के परिसर में बन्दूकें, तोप के गोले, मोर्टार आदि की ढलाई के लिए ढलाई खाने भी बने हुए हैं। 18वीं शताब्दी के अन्त में टीपू सुल्तान की सेनाओं को यहाँ रखने के लिए इस किले का उपयोग जेल के रूप में भी किया गया था।

उदयगिरि किला