हिमरू

पहले 'ख्वाब' यानि छोटा स्वप्न के नाम से जाने वाली, हिमरू बुनाई की एक अनोखी तकनीक है जो अपनी भव्यता के लिए जानी जाती है। इसमें उपयोग किया जाने वाला कपड़ा कपास और रेशम को मिलाकर तैय्यार किया जाता है और उसमें साटन जैसी चमक होती है। हिमरू के डिजाइन और शैली एक विशेष कारण के चलते प्रसिद्ध हैं। ऐसा माना जाता है कि इस कला की उत्पत्ति फारस में हुई थी। इसकी बुनाई में प्रकृति, धार्मिक छंदों और शासकों के चित्रों से तैयार आकृतियों के साथ कई ज्यामितीय डिजाइनों में बुनी गई सादी रेखाएं शामिल हैं। बुनाई में स्थानीय फलों, फूलों, पक्षियों और जानवरों की आकृतियां भी होती हैं। हिमरू शॉल में ढीले रेशम की एक और परत होती है जिसकी वजह से ये इतने नरम होते हैं और रेशम की तरह का अहसास देती है।'हिमरू' ईरानी भाषा का शब्द है जिसका मतलब है-एक जैसा। इस तकनीक को महंगी 'किमख्वाब' तकनीक के बदले तैय्यार किया गया था, जिसमें रेशम और सोने के धागों से बनाया गया ब्रोकेड का काम रहता था जो मुख्यतः शाही लोगों के लिए बनता था। हिमरू की तकनीक औरंगाबाद में मुहम्मद तुगलक के शासन के दौरान आयी, जब उन्होंने अपनी राजधानी दिल्ली से बदलकर दौलताबाद की और गुजरात, बनारस और अहमदाबाद से बुनकरों को लाकर अपनी नई राजधानी में बसाया।कुछ लोकप्रिय चीजें जो आप औरंगाबाद में खरीद सकते हैं, वे हैं शॉल, तकियाखोल, जैकेट, चादर, कोट और पर्दे। एक समय पर हिमरू शेरवानीयां भी पुरुषों में काफी लोकप्रिय थीं। वास्तव में, निज़ाम के शासन के दौरान, ये इतनी लोकप्रिय हो गई थी कि इन्हें शादियों की पारंपरिक पोशाक माना जाने लगा था।

हिमरू

पैठणी साड़ियां

पैठणी साड़ी अपने आप में ही एक लक्जरी है। इसकी अपनी विशेषता यह है कि साड़ी के दोनो तरफ, और पाड़ और पल्लू दोनों पर समान आकृतियां रहती हैं। यह साड़ी, महाराष्ट्र में शादी में वधू के लिबास का एक अहम हिस्सा होती हैं और यह समय के साथ अपनी चमक नहीं खोती हैं, जैसा कि बाकी सिल्क की साड़ियों का होता है। यह साड़ी मुख्य रूप से आसमानी नीले, लाल, पीले, हरे, मैजेंटा और बैंगनी रंगों में आती है, और इसमें दो प्रमुख रंग हावी होते हैं: एक रंग जो साड़ी पर होता है, और दूसरा रंग जो पाड़ और पल्लू पर होता है।यह कला सतवाहन राजवंश के जमाने की है जिनका शासन ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से दूसरी ईस्वी शताब्दी तक था। चूंकि यह औरंगाबाद के पैठण में उत्पन्न हुई थी, इस महीन रेशमी हथकरघे साड़ी का नाम इस शहर से ही पड़ा है। पैठणी साड़ियां मुगल काल के दौरान प्रसिद्ध हुईं, खासकर औरंगजेब के समय में। ब्रिटिश शासन के दौरान इसको एक झटका लगा। पेशवाओं ने 17 वीं शताब्दी में इस कला को फिर से प्रचलित किया। वास्तव ने उन्होंने साड़ी बुनने वालों को येओला में बसाया, जो आज पैठणी का केंद्र है।बुनाई की ये तकनीक काफी कुछ चित्र बने कपड़े (टेपेस्ट्री) की बुनाई की तरह है। किसी समय साड़ियों को चीन से आने वाले रेशम और स्थानीय असली सोने और चांदी के ज़री धागों से बुना जाता था। आज इन साड़ियों की बुनाई के लिए सूरत की ज़री और बैंगलोर के मलबेरी सिल्क का प्रयोग किया जाता है। एक असली छह गज की पैठणी साड़ी को बनाने के लिए लगभग 500 ग्राम रेशम के धागे और 250 ग्राम ज़री के धागे का उपयोग किया जाता है। नौ गज की साड़ी के लिए ये वजन 900 ग्राम तक बढ़ जाता है।इसे बनाने की प्रक्रिया में कच्चे रेशम के धागों को खनिज, पौधों, सब्जियों और चट्टानों से लिए गए प्राकृतिक रंगों से डाई किया जाता है। इन धांगो को फिर रीलों पर लपेटा जाता है और करघे पर चढ़ाया जाता है। इस प्रक्रिया का सबसे मेहनत वाला काम है करघे को तैय्यार करना है, जिसमें लगभग एक दिन का समय लग जाता है। इसी कदम से उत्पाद के रंग, डिजाइन और बाकी सभी विवरण निर्धारित होती हैं। साड़ी बनाने में लगभग एक या दो महीने का समय लगता है और इसे बुनने में हाथ, पैर और आंखों का सटीक मेलजोल चाहिए होता है। जहां एक रंग के धागे का उपयोग लंबाई की दिशा में किया जाता है, वहीं दूसरे रंग का उपयोग चौड़ाई की दिशा में किया जाता है। इसके चलते साड़ी को रोशनी में चमकने की क्षमता मिलती है और जिस चलते झिलमिलाते सुंदर रंग उभर कर सामने आते हैं। ऐसा लगता है कि मानो साड़ी अपना रंग बदल रही हो।

पैठणी साड़ियां

कागज़ीपुरा

मंगोल आक्रमणकारियों के भारत आने से पहले, भारत में कागज़ीपुरा एकमात्र ऐसा स्थान था जहां हाथों से बने कागज का उत्पादन किया जाता था। कुरान यहीं से बने कागज पर छपती थी। कागज बनाने की यह अनूठी कला लगभग 700 साल पुरानी है, जो दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक के समय की है।

कागज़ीपुरा

बिदरीवेयर

बिदरीवेयर औरंगाबाद के पास स्थित बीदर की एक अपनी हस्तकला परंपरा है जो दुनिया भर में पसंद की जाती है। जस्ता और तांबे पर शुद्ध चांदी या पतली चादर की जाने वाली जड़ाई के काम, एक बहुत ही जटिल और नाजुक कला है। बिदरी वस्तुएं हैदराबाद की ज्यादातर कला और शिल्प की दुकानों में पाई जा सकती हैं और स्थानीय हेरिटेज टूर कंपनियों द्वारा बीदर में नियमित टूर आयोजित किए जाते हैं, जहां पर्यटक कारीगरों को काम करते हुए देख सकते हैं।इस कला की उत्पत्ति बहमनी सुल्तानों के शासनकाल के दौरान हुई मानी जाती है, जिन्होंने 14 वीं और 15 वीं शताब्दी में बीदर पर शासन किया था। इसे फ़ारसी, अरबी और तुर्की डिज़ाइनों का सम्मिश्रण कहा जाता है। हालांकि इसे साबित करने के लिए कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं हैं, लेकिन कई लोग मानते हैं कि इस कला को 12वीं शताब्दी के धर्मोपदेशक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के शिष्यों द्वारा लाया गया था।इन सुंदर वस्तुओं को बनाने की प्रक्रिया काफ़ी जटिल है और इसमें इस्तेमाल होने वाली मुख्य सामग्री जस्ता और तांबे को 16:1 के अनुपात में मिलाकर बनाई जाने वाली एक मिश्रधातु होती है। फिर इस मिश्रधातु पर कलात्मक आकृतियां बनाई जाती हैं। इस प्रक्रिया में आठ चरण होते हैं। सबसे पहले मोल्डिंग यानी सांचे में ढालने का काम होता है, इसके बाद एक फ़ाइल से उसे घिस कर इसे चिकना किया जाता है। इसके बाद इस पर छेनी से तराश कर नक्काशी की जाती है। सबसे अनोखा चरण है चांदी की जड़ाई का, जिसके बाद इसे फिर घिसा और चिकना किया जाता है और अखिर में इसे अमोनियम क्लोराइड और मिट्टी द्वारा ऑक्सीडाइज़ किया जाता है। यह माना जाता है कि इस मिट्टी में मौजूद रसायन, उत्पादों को चमकदार काला रंग देते हैं। यहां खरीदी जा सकने वाली चीज़ों में फूलदान, सुरा पात्र, कैन्डल होल्डर्स, गहनों के डब्बे, मदिरा पात्र और हुक्के शामिल हैं।

बिदरीवेयर