कभी अलवर के महाराजा का शिकार आरक्षित क्षेत्र रही सरिस्का घाटी आज विभिन्न प्रकार के वनस्पतियों और जीवों से आबाद है। इस पार्क में बाघ, नीलगाय, सांभर, चीतल आदि पशु निवास करते हैं। यहां तक ​​कि शाम के समय भारतीय साही, धारीदार लकड़बग्घे, तेंदुए भी यहाँ देखे जा सकते हैं। इस स्थान पर भारतीय मोरों, चीलों, सुनहरी पीठ वाले कठफोड़वों, भारतीय सींग वाले उल्लुओं की एक बड़ी आबादी होने के कारण यह पक्षी प्रेमियों के लिए स्वर्ग जैसी जगह है। 

अभयारण्य के अधिकांश हिस्से में शुष्क पर्णपाती जंगल हैं, जो इसके उत्तर पूर्व में शांत सिलिसेर झील को आच्छादित रखते हैं। अभयारण्य के चारों ओर प्राचीन मंदिरों के खंडहर फैले हुए हैं, जिनमें से अधिकतर 10 वीं और 11 वीं शताब्दी के हैं। कांकेरी किला और 10 वीं शताब्दी के नीलकंठ मंदिरों के खंडहर इसके कुछ मुख्य आकर्षण हैं । इन मंदिरों का रास्ता ऊबड़-खाबड़ है, लेकिन वास्तुकला और खजुराहो जैसी नक्काशी दर्शकों के मन पर अपनी छाप छोड़ देगी। मंदिर अभ्यारण्य के अंदर 30 किमी की दूरी पर हैं, जहाँ मोर जैसे खूबसूरत पक्षी देखे जा सकते हैं। इन मंदिरों से लगभग 100 मीटर दूर जैन तीर्थंकर शांतिनाथ की एक अखंड पत्थर से बनी मूर्ति भी है। सरिस्का अभयारण्य में धार्मिक महत्व का एक और दिलचस्प स्थल पांडुपोल है, जिसके बारे में कहा जाता है कि पांडवों में सबसे शक्तिशाली भीम ने यहाँ विशालकाय दानव हिडिंब को हराया था और उसकी बहन हिडिम्बा से विवाह किया था। यह भी माना जाता है कि पांडवों के वनवास के दौरान भीम ने यहां शरण ली थी। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में लंगूर, मोर इत्यादि पाए जाते हैं।

1955 में एक वन्यजीव अभयारण्य के रूप में घोषित किए गए सरिस्का ने वर्ष 1979 में एक राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्राप्त किया। इस स्थान में घूमने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से जून तक है।

अन्य आकर्षण