तंजौर बॉबलहेड डॉल

कांच के चित्रों के अलावा, तंजावुर की एक अन्य शानदार शिल्प कला बॉबलहेड डॉल मानी जाती है। ये खिलौने अत्यंत लोकप्रिय हैं, जो अब विश्व स्तर पर भारत का एक सांस्कृतिक प्रतीक बन गए हैं। यह शहर की पुरानी परंपराओं में से एक हैं। डॉल पर विशुद्ध रूप से की गई दस्तकारी, पेपर माचे, मोम, प्लास्टर ऑफ पेरिस, मिट्टी और रंग जैसी सामग्रियां इनके रंग रूप को निखारती हैं। इन्हें अक्सर टेराकोटा के साथ बनाया जाता है, और जो उत्पाद अंत में बनकर आता है, वह एक बढ़िया और चमकीले रंग का खिलौना होता है, जो घर के साजो सामान के तौर पर पर्यटकों के बीच बेहद लोकप्रिय है। ये गुड़िया आमतौर पर 15 से 30 सेंटीमीटर लंबी होती है और उनका पूरा वजन सबसे नीचे एक बिंदु पर केंद्रित होता है। खिलौने के आधार का उपयोग गुरुत्वाकर्षण के केंद्र के रूप में किया जाता है, ताकि गुड़िया को आसानी से ऑक्सीलेट (oscillate) करने में मदद मिल सके। इन गुड़ियों का तमिल नाम तंजावुर थलायत्ति बोम्मई है, जो 19 वीं शताब्दी में भोंसले वंश के अंतिम शासक राजा सरबोजी के तहत उत्पन्न हुआ था। नवरात्रि के दौरान ये डॉल तमिलनाडु के घरों में सजावट का हिस्सा बनती हैं। बॉबलहेड डॉल का एक और वर्जन है, जिसे राउंडपॉट या रॉकिंग डॉल के नाम से जाना जाता है। भारत सरकार ने इस खिलौने को तंजावुर के सम्मान के रूप में भौगोलिक संकेतक का दर्जा दिया है।

 तंजौर बॉबलहेड डॉल

ताड़ के पत्तों से बनी वस्तुएं

तंजावुर के पास नागोर शहर से उत्पन्न, इस शिल्प कला में दैनिक जीवन की वस्तुओं को बनाने के लिए ताड़ के पेड़ों के कई हिस्सों का उपयोग किया जाता है, जो न केवल सुंदर होती हैं, बल्कि पर्यावरण के अनुकूल भी हैं। ताड़ के पत्तों और तंतुओं को विभिन्न पैटर्न के लट में बनाया जाता है, और फिर इसका उपयोग टोकरी, बक्से, ट्रे, कोस्टर, कपड़े धोने की टोकरी, सूटकेस, मैट, हाथ के पंखे, फूलदान, ग्लास होल्डर आदि बनाए जाते हैं। कभी-कभी ताड़ के तनों का प्रयोग कर मैट भी बनाए जाते हैं। इसके लिए ताड़ के पत्तों को धूप में सुखाया जाता है और उनकी रिब्स को हटा दिया जाता है। वे सभी उत्पाद जिनमें 37 से 56 ब्लेड का उपयोग किया गया है, उनको सहारा देने के लिए ब्लेड को तांबे के तार के साथ फिट किया जाता है। उत्पाद बनाने के बाद, इन्हें और अधिक आकर्षक बनाने के लिए इन पर रूपांकनों की चित्रकारी की जाती है। इनके चमकीले रंग और स्थानीय पैटर्न पर्यटकों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं।

ताड़ के पत्तों से बनी वस्तुएं

तंजौर की चित्रकला

तंजौर पेंटिंग घरों में लगाकर आप अपने घरों को सुशोभित कर सकते हैं और विशेष अवसरों पर किसी को उपहार के रूप में भी दे सकते हैं। ये तमिलनाडु के तंजावुर की एक स्वदेशी कला है। तंजौर की चित्रकला में, राहत कार्य और धार्मिक रचनाओं और रूपांकनों की झलक देखने को मिलती है। अर्ध-कीमती पत्थर, मोती और कांच के टुकड़े इनकी सुंदरता में और चार चांद लगाते हैं। ये दक्षिण भारतीय चित्रों के सबसे लोकप्रिय रूपों में से एक है, जो अपनी समृद्धि और चमकीले और आकर्षक रंगों के लिए जानी जाती है।

ऐसा माना जाता है कि यह कला 16 वीं शताब्दी में चोल शासनकाल के दौरान उत्पन्न हुई थी। इन चित्रों के संरक्षक के रूप में मराठा शासक, तंजौर और त्रिची के नायक और राजस समुदाय और मदुरै के नायडू ने अपनी भूमिका निभाई थी। इन पेंटिंग की थीम हिंदू देवी-देवताओं और संतों के इर्द-गिर्द घूमती है। कुछ चित्रों में पक्षियों, जानवरों और फूलों के पैटर्न भी हैं। इन चित्रकलाओं को ठोस लकड़ी के तख्तों पर बनाया गया है, और मुख्य आकृतियों को केंद्र में चित्रित की गया है। इन चित्रों को पलगाई पदम भी कहा जाता है।

तंजौर की चित्रकला