गणेश मूर्तियां

ज्ञान और सौभाग्य के प्रतीक, भगवान गणेश महाराष्ट्र में सबसे अधिक पूजे जाने वाले हिंदू देवता हैं। गणेश चतुर्थी एक प्रमुख 10-दिवसीय त्योहार है जिसे अगस्त और सितंबर के महीनों में महाराष्ट्र के घरों में बड़े हर्ष और उल्लास से मनाया जाता है। भक्त गणेश की मूर्तियों और चित्रों को खरीदते हैं और उन्हें अपने घर में एक दिव्य अतिथि के रूप में रखते हैं और त्योहार के अंत में, तय दिन पर, इस मूर्ति या चित्र को समारोह पूर्वक निकाला जाता है और नदी या समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है। ये मूर्तियां विभिन्न आकारों और मुद्राओं (पोज़) में मिलती हैं। ऐसी शिल्पशालाएं जहां ये मूर्तियां बनाई जाती हैं, पूरे मुंबई में देखी जा सकती हैं, खासकर परेल, चिंचपोकली और लाल बाग जैसे इलाकों में। मुंबई से लगभग दो घंटे की दूरी पर स्थित पेन गांव अपने उच्च कुशल कारीगरों के लिए जाना जाता है, जो सालाना लाखों गणेश प्रतिमाएं बनाते हैं। हाल ही में, मुंबई के तटों पर मूर्तियों के विसर्जन से उत्पन्न पर्यावरणीय चिंताओं के कारण, कई कारीगर धीरे-धीरे ज़्यादा पर्यावरण-अनुकूल मूर्ति बनाने की तकनीकों की ओर बढ़ रहे हैं, जैसे कि लाल मिट्टी, फर्टिलाइजर्स, प्राकृतिक रंग, कुट्टी (पपीयर मशे) और बायोडिग्रेडेबल चीज़ों का प्रयोग करना।

गणेश मूर्तियां

मुंबई के लोक नृत्य और गीत

यहां की खूबसूरत संगीत और नृत्य परंपरा, महाराष्ट्र के जादू का अनुभव करने के लिए सबसे बेहतर है। एक समृद्ध संस्कृति और विरासत वाले महाराष्ट्र में कई अलग-अलग प्रकार के स्वदेशी नृत्य हैं और ये सभी मुंबई और इसके आस-पास के इलाकों में देखे जा सकते हैं। इन नृत्यों को शादियों और त्यौहारों के दौरान मनोरंजन के लिए समूह में किए जाने वाले रंगीन लोक नृत्य के रूप में किया जा सकता है या फिर लोकप्रिय लोक और ऐतिहासिक कथाओं के साथ-साथ जीवन का जश्न मनाने वाले अधिक आध्यात्मिक और व्यक्तिगत नृत्य के रूप में भी किया जा सकता है। पोवाड़ा एक नृत्य रूप है जो प्रसिद्ध मराठा शासक, शिवाजी महाराज की आजीवन उपलब्धियों को दर्शाता है। लावणी और कोली नृत्य रूप अपने संगीत और लयबद्ध मूवमेंट्स से मनोरंजन करते हैं। शोलापुर के धनगरों द्वारा धांगड़ी गाजा नृत्य, भगवान का सम्मान देने के लिए किया जाता है। दिंडी और कला धार्मिक लोक नृत्य हैं, जो भगवान कृष्ण के परमानंद का सूचक हैं। महाराष्ट्र में कई महान संत कवि भी हुए हैं, जैसे ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम, जानी और सोयरा, जिन्होंने अपने लोक गीतों के माध्यम से पूजा का महत्व सिखाया है और सभी को एक भगवान में मिल जाने का आग्रह किया है।

मुंबई के लोक नृत्य और गीत

वर्ली पेंटिंग

वर्ली जनजाति महाराष्ट्र क्षेत्र की सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है। ये मुंबई के बाहरी इलाके उत्तर सह्याद्री क्षेत्र में रहती हैं। जनजाति की महिलाएं स्वदेशी पेंटिंग करती हैं, इस कला को 'वर्ली ट्राइबल वॉल पेंटिंग' कहा जाता है। ये आमतौर पर घरों की मिट्टी की दीवारों पर की जाती है। इस कला के रूप का पता 10 वीं शताब्दी ईस्वी में लगाया गया था, लेकिन इसकी खोज और पहली बार इसे प्रशंसा मिली 70 के दशक में। यह आमतौर पर सामान्य जीवन की दिनचर्या और परिवेश से प्रेरणा लेता है। दहानू, मोखदा, तलासरी और पालघर जिले के इलाकों में रहने वाली जनजातियों का मानना है कि प्रकृति सबसे अच्छी शिक्षक है और सबसे बड़ी दाता भी। दैनिक जीवन की गतिविधियां जैसे खेती, भोजन एकत्र करना, ग्राम जीवन, प्रकृति और वन्य जीवन से इसका जुड़ाव इस प्रजातीय कला की विशिष्टताएं हैं। चित्रों में उपयोग किए जाने वाले रंग और सामग्री प्रकृति से ही ली गई है-मेंहदी से भूरे और नारंगी, नील से नीला, ईंटों से लाल और मोटे चावल के पेस्ट से सफेद रंग बनाए गए हैं। चित्रों को बनाने के लिए सावधानी से तराशी गई बांस की छड़ियों को पेंट ब्रश के रूप में उपयोग किया जाता है।

वर्ली पेंटिंग