तंजौर चित्रकलाएँ

तंजौर की चित्रकलाएँ विश्व भर में अपनी गहन संरचना, आकर्षक लंगों तथा सतही समृद्धि के कारण प्रसिद्ध हैं। तंजावुर चित्रकला के नाम से प्रसिद्ध ये प्राचीन दक्षिण भारतीय चित्रकलाओं का एक रूप हैं। चोला राजवंशों के शासन काल में 1600 ई. से प्रचलित इन कलाओं को भारत सरकार ने 2007-08 में भौगोलिक सूचक के रूप में मान्यता दी।अधिकतर चित्रकलाएँ समृद्ध और भव्य रंगों द्वारा निर्मित होती हैं जिनकी रचना का केन्द्र दक्षिण भारत के देवता, देवियाँ और सन्त हैं। इन कलाकृतियों को बहुमूल्य पत्थरों, सोने के पत्तरों, मोतियों और शीशे के टुकड़ों से जड़ा जाता है जिससे इसमें त्रिविमीय प्रभाव दिखाई देता है। बाद में इन चित्रकलाओं में मानवीय आकृतियों, फूलों, पक्षियों तथा पशुओं का भी प्रयोग किया जाने लगा। चित्रकला को प्रमुख चित्र के बीचोंबीच बनाया जाता है। तंजौर चित्रकलाएँ प्रमुख रूप से लकड़ी के पटरों पर तैयार की जाती हैं और इस प्रकार स्थानीय भाषा में इसे पलागाई पदम कहा जाता है, 'पलागाई' का अर्थ है लकड़ी के फट्‌टे और 'पदम' का अर्थ है चित्र में परिवर्तित करना।16वीं से 18वीं शताब्दी तक इन्हें मराठा राजवंशों, त्रिची तथा मदुरै के नायडू, नायक और तंजौर के राजुस समुदायों का संरक्षण प्राप्त था।इन्हें बनाने की तकनीक अत्यन्त जटिल है और इन्हें अनेक चरणों में बनाया जाता है। प्रारम्भ में आधार पर एक आकृति का चित्र खींचा जाता है जिसे लकड़ी के फट्टे पर कपड़ा लपेटकर तैयार किया जाता है। इसके बाद जल में घुलनशील जिंक ऑक्साइड या चाक पाउडर को मिलाया जाता है जिसे आधार पर फैला दिया जाता है। इसके बाद चित्र बनाने और कीमती पत्थरों, शीशे के टुकड़ों तथा मोतियों से सजाने का कार्य किया जाता है। चित्रकला को सजाने के लिए धागों या डोरियों का भी प्रयोग किया जा सकता है। सौन्दर्य बढ़ाने के लिए कुछ भागों पर बहुत पतले सोने के पत्तरों को चढ़ाया जाता है जबकि अन्य भागों में चमकीले रंगों का प्रयोग किया जाता है।

तंजौर चित्रकलाएँ

काष्ठ कला

उत्तम कोटि की लकड़ी से निर्मित कन्याकुमारी का हस्तशिल्प अपनी सुघड़ता, प्रभावशाली डिजाइन और दीमक प्रतिरोध के लिए प्रसिद्ध है। काष्ठ शिल्प सम्पूर्ण राज्य तथा नागरकोविल और सुचिन्द्रम जैसे शहरों में प्रसिद्ध है और अपने उत्कृष्ट स्वरूप के लिए जाने जाते हैं। सुन्दर कसीदाकारी तथा जटिल रूप से डिजाइन वस्तुओं के निर्माण के लिए परम्परागत शिल्प का प्रयोग किया जाता है जिससे इन्हें सुन्दर और सुघड़ बनाने में सहायता मिलती है। विशेष अवसरों पर आकर्षक काष्ठ शिल्प से बनी वस्तुएँ उपहार में प्रदान की जा सकती हैं। इस शहर में लकड़ी के कार्य में प्रमुख रूप से ताड़ के वृक्षों की लकड़ियों, बाँस, सरकण्डों के तनों, घास और नरकुल का प्रयोग किया जाता है। लकड़ी की छाल के अतिरिक्त शिल्पकार टोकरियाँ, रस्सियाँ, चटाइयाँ और अन्य वस्तुएँ बनाने के लिए नारियल के रेशों का उपयोग करते हैं। अन्य वस्तुओं में फूलों की आकृति के मेज या रामायण एवं महाभारत कालीन पौराणिक दृश्यों के पैनल बनाना शामिल है। शहर के शिल्पकला की दुकानों में लकड़ी से निर्मित वस्तुओं और दैनिक उपयोग में आने वाली अन्य अनेक वस्तुएँ बेची जाती हैं जिन्हें यादगार के तौर पर घर ले जाया जा सकता है।

काष्ठ कला

संगीत वाद्यंत्र

संगीत कन्याकुमारी के निवासियों के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अत: वाद्य यन्त्रों का निर्माण भी यहाँ अत्यन्त लोकप्रिय है और इनका उपयोग सामान्यत: तंजावुर क्षेत्र में किया जाता है। एक अन्य विशेषता यह है कि तमिल लोग अपने वाद्य यन्त्रों को उनके प्रकारों के आधार पर वर्गीकृत नहीं करते हैं बल्कि इनका वर्गीकरण बजाये जाने वाले अवसरों के आधार पर किया जाता है। विवाह समारोह में प्रमुख रूप से नादीश्वरम बजाया जाता है जबकि धार्मिक त्यौहारों के अवसर पर कुम्बू का अधिक प्रयोग किया जाता है। सबसे अधिक बजाया जाने वाला वाद्य यन्त्र सिलप्पादिकारम है और यह भी प्राचीनतम वाद्ययन्त्रों में से एक है। विशेष रूप से एक मोहक वाद्य यन्त्र याजा है जो मछली, मगरमच्छ तथा नाव के आकार में बनाया जाता है। प्राचीन समय में अत्यन्त लोकप्रिय तम्बूरा या बीन के आकार का याजा वीणा (तारों से युक्त एक वाद्य यन्त्र) से मिलता-जुलता है। इसे कटहल की लकड़ी से तैयार किया जाता है। अन्य लोकप्रिय वाद्य तम्बूरा है जिसका आधार लकड़ी का बना होता है और खुजाल वाद्य भगवान कृष्ण के वाद्य यन्त्र अर्थात बाँसुरी से बहुत मिलता-जुलता है।

संगीत वाद्यंत्र