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तंजौर पेंटिंग आपके घरों के अंदरूनी हिस्सों को सुशोभित करने का एक शानदार तरीका है और विशेष अवसरों पर इन्हें उपहार के रूप में प्रस्तुत भी किया जा सकता है। यह तमिलनाडु के तंजावुर की एक स्वदेशी कला है जिसके अंतर्गत धार्मिक रचनाओं और रूपांकनों से जुड़ी गहन रचनाओं का सृजन किया जाता है। सुन्दर पत्थर, मोती और कांच के टुकड़े इन चित्रों की सुंदरता में और इजाफा करते हैं। यह दक्षिण भारतीय चित्रों के सबसे लोकप्रिय रूपों में से एक है, जो अपनी सतह समृद्धि और जीवंत रंगों के लिए जाना जाता है।
ऐसा माना जाता है कि यह कला 16 वीं शताब्दी के दौरान चोलों के शासनकाल के दौरान उत्पन्न हुई थी। इन चित्रों के संरक्षकों में मराठा शासक, तंजौर और त्रिची के नायक और राजस समुदाय तथा मदुरै के नायडू शामिल हैं। इनमें से अधिकांश चित्रों के विषय हिंदू देवी-देवताओं और संतों के इर्द-गिर्द केन्द्रित होते हैं। कुछ चित्रों में पक्षियों, जानवरों और फूलों के पैटर्न भी होते हैं। ठोस लकड़ी के तख्तों पर अंकित की गई मुख्य आकृति इनके केंद्र में चित्रित की जाती है। इन चित्रों को पलागाई पदम भी कहा जाता है।
तंजौर पेंटिंग बनाने के लिए पहले आधार पर छवि का मूल स्केच बनाया जाता है, जो कपड़े से बना कर लकड़ी के आधार पर चिपकाया जाता है। चाक पाउडर को पानी में घुलनशील गोंद के साथ मिश्रित किया जाता है और आधार पर लेपित किया जाता है जिसके बाद कटे हुए शीशे और मोती के साथ इस चित्र को बनाया और सजाया जाता है। कुछ कलाकार तंजौर चित्रों की सुंदरता बढ़ाने के लिए अर्द्ध कीमती पत्थरों और रंगीन लेस का भी उपयोग करते हैं। अंतिम चरण में चित्रों के कुछ हिस्सों पर सोने की बेहद पतली परत भी चिपकाई जाती है जबकि शेष भागों को चमकीले रंगों का उपयोग करके सुसज्जित किया जाता है। इस में इस्तेमाल किया गया सोना 22 कैरेट का असली सोना होता है और सालों तक अपनी आभा बरकरार रखते हुए अंधेरे में इन चित्रों को एक चमकदार उपस्थिति प्रदान करता है।