यह एक प्रकार की कढ़ाई होती है जो धातुओं के धागों से की जाती है और यह कढ़ाई आगरा की विशेषता है। कभी इनका उपयोग राजे-महाराजे एवं महारानियां किया करती थीं। इसके अलावा राजशाही टैंटों, वॉल हेंगिंग तथा शाही अश्वों की काठी पर भी इनका उपयोग किया जाता था। इसमें सोने एवं चांदी के धागों से भी कढ़ाई की जाती है। पोशाक की सुंदरता बढ़ाने के लिए इसमें बहुमूल्य रत्न एवं हीरे भी टांके जाते हैं।

इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी किया गया है। उस समय भगवान की पोशाकों पर ज़री का काम किया जाता था। उस समय विशुद्ध स्वर्ण की पत्तियों एवं चांदी की तारों का उपयोग किया जाता था। वर्तमान में तांबे की तारों पर सोने व चांदी का पानी चढ़ाकर कढ़ाई की जाती है। यह शब्द फारसी भाषा के दो शब्दों ‘ज़र’ जिसका अर्थ स्वर्ण होता है तथा दोज़ी जिसका मतलब कढ़ाई होता है, से मिलकर बना है। अकबर के शासनकाल में 17वीं शताब्दी में इसके चलन में बहुत बढ़ोतरी हुई। आजकल इसका इस्तेमाल लहंगा, साड़ियों, सलवार कमीज़ एवं जूतियों पर भी होता है।     

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