पुरी की समृद्ध विरासत इसकी विभिन्न कलाओं और शिल्पों में प्रत्यक्ष स्पष्ट है और कोई भी यहां से सुंदर हथकरघा के कपड़े की खरीदारी कर सकता है, जो विश्व भर में प्रसिद्ध है।

पट्टचित्र

एक पारंपरिक कला का रूप पट्टचित्र, धार्मिक विषयों पर की गई सूक्ष्म चित्रकारी (मिनिएचर पेंटिंग) है। विशेष तरीके से बनाये गये गए कपड़े, जिसे पट्ट कहा जाता है, पर हिंदू महाकाव्यों और हिंदू देवी-देवताओं के किंवदंतियों की कहानियां चित्रित की जाती हैं। शब्द 'पट्टचित्र' का शाब्दिक अर्थ है एक कपड़े का टुकड़ा जिस पर चित्र बनाया हुआ हो। चमकीले रंगों और जटिल विवरणों के साथ बनाये इन चित्रों का उपयोग, दीवार की सजावट की वस्तुओं के रूप में किया जा सकता है। पुरी के बाहरी इलाके में स्थित, रघुराजपुर और दंडासाही गांवों में व्यापक रूप से प्रचलित ये पट्टचित्र कला, इस स्थान के पर्याय बन गए हैं।

पट्टचित्र

पिपली

पिपली का गांव, अपने कढ़ाई सिलाई और पैबंद कला के लिए प्रसिद्ध है, जो भुवनेश्वर से लगभग 24 किमी और पुरी से लगभग 40 किमी दूरी पर स्थित है। पर्यटक यहां काम करते कारीगरों की कड़ी मेहनत को देख सकते हैं, और उनसे छतरियां, हैंडबैग्स, कठपुतलियां, पर्स, दीवार की लटकन, चादरें, कुशन कवर, तकियाखोल, लैंपशेड, लालटेन और बहुत कुछ खरीद सकते हैं। यहां के बने तारासास या दिल के आकार के लकड़ी के टुकड़े, उत्सव के दौरान रथों में उपयोग किए जाते हैं। वास्तव में, चंदन यात्रा (चंदन लकड़ी की यात्रा) में, ऐसे जुलूस होते हैं, जिनमें देवतागण छतरियों से ढके होते हैं जिस पर की गई सिलाई कढाई पिपली गांव की होती है। इस तरह की सिलाई कढाई की कला प्राचीन काल से होती आ रही है। इसमें कपड़े के छोटे टुकड़ों को चित्रित करना और उन्हें पैबंद लगाकर सिलना शामिल है। इन छोटे कपड़ों पर फूलों, जानवरों, गांव के दृश्यों और अन्य पारंपरिक डिजाइनों को चित्रित किया जाता है, जिन्हें बड़े कपड़े के आधार पर पैबंद की तरह सिला जाता है। सूती कपड़े का उपयोग, आधार के कपड़े के साथ-साथ पैबंद लगाने के लिए भी किया जाता है। पहले विभिन्न प्रकार के, जीवंत रंगों के मिश्रणों की संकल्पना की जाती है और फिर उन्हें, पिपली के प्रतिभाशाली ग्रामीणों द्वारा कपड़ों पर जीवंत किया जाता है।इस तरह की कढाई सिलाई के कला कौशल का, पिपली गांव के लोगों में जुनून है, पर उनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। वे चावल और गेहूं से लेकर जूट, तिल, सरसों, और गेंदे का फूल के फसलों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की सब्जियों की खेती करते हैं। इस गांव तक पहुंचने के लिए, ऑटो रिक्शा की सवारी ही एकमात्र साधन हैं। और जब भी कोई पिपली की यात्रा कर रहा हो, तो उसे अपना फ़ोटो पहचानपत्र संभाल कर रखना चाहिए (अपने वोटर कार्ड को ले जाना एक बेहतर है) क्योंकि इसके मार्ग पर दो बीएसएफ चेक पोस्ट पड़ते हैं।

पिपली

साड़ियां

ओडिशा, विशिष्ट हाथ से बुने हुए वस्त्रों के कई किस्मों का केंद्र है, जिनमें सूती और रेशम की साड़ियां प्रसिद्ध हैं। यह राज्य अपनी रेशमी 'इकत' साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है जो एक पुरानी पद्धति द्वारा बनाई जाती हैं। इसकी बुनाई करते समय एक अलग तरीका अपनाया जाता है, जिसमें ताने बाने को साथ बांधा और रंगा जाता है और जिससे एक अलग तरह का पैटर्न बनता है। प्रकृति और मंदिरों से प्रेरणा लेते हुए, ये साड़ियां भड़कीले रंगों की और साहसी पैटर्नों की होती हैं। संबलपुर, बेरहामपुर, मयूरभंज और नुआपटना आदि स्थान, तसर रेशम के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं। नुआपटना में निर्मित दुर्लभ रेशमी कपड़ों को गीतगोविंद के छंदों से अलंकृत किया जाता है, और इसका उपयोग जगन्नाथ मंदिर में मूर्तियों को सजाने के लिए किया जाता है। यहां के कारीगर रेशम-कीड़ो की खेती की सदियों पुरानी कला से अच्छी तरह से वाकिफ हैं, और साड़ियों के अलावा रेशम की टाई, दुपट्टे, साजो-सामान और ड्रेस के कपड़े बनाते हैं।

बेरहामपुरी पट एक भारी रेशमी साड़ी है, जो पतले किनारे और सरल डिज़ाइन की होती है। संबलपुर की 'सकतापर साड़ी', बेल बूटेदार किनारों की दोहरी 'इकत' पैटर्न वाली होती है।

साड़ियां

रघुराजपुर

भुवनेश्वर से लगभग 52 किमी दूरी पर स्थित, रघुराजपुर एक विरासतीय शिल्प ग्राम है जो पट्टचित्र कलाकृतियों के लिए प्रसिद्ध है। कला का यह रूप 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व का है। इसमें पौराणिक विषयों पर आधारिेत रंगीन पैटर्न, कपड़े के एक टुकड़े पर चित्रित किए जाते हैं। यहां पर्यटक तुसर पेंटिंग, ताड़ के पत्ते की नक्काशी, मिट्टी के बर्तन, कागज़ के बने सामान, लकड़ी और पत्थर पर नक्काशी की गई मुखौटे, और गाय के गोबर के, और लकड़ी के बने खिलौने भी खरीद सकते हैं। संभवतः यह भारत का एकमात्र स्थान है जहां विभिन्न कला के कलाकारों की इतना बड़ा समुदाय रहता है। रघुराजपुर को गोटीपुआ नृत्य मंडलियों के लिए भी जाना जाता है, जो नृत्य लोकप्रिय और विश्व स्तर पर सराहे जाने वाली ओडिसी शास्त्रीय नृत्य की जन्मदात्री हैं। ओडिसी शास्त्रीय नृत्य के प्रणेता, गुरु केलुचरण महापात्र का जन्म भी इसी गाँव में हुआ था।

रघुराजपुर को, ओडिशा राज्य के पहले विरासतीय ग्राम के रूप में, और एक शिल्प ग्राम के रूप में विकसित होने का गौरव प्राप्त है। इस पहल के बाद, गांव में एक विवेचना केंद्र स्थापित हुआ, जिसमें कलाकारों के घरों की कलाकृतियों के साथ-साथ एक रेस्ट हाउस भी है।कहा जाता है कि पट्टचित्र कला को पुनर्जीवित, एक अमेरिकी महिला हेलेना ज़िअली ने, सन् 1940 के दशक में किया। उसने कई पट्टचित्र प्रदर्शनियों का आयोजन अमेरिका में किया और इस चित्रकला के वहा़ं के प्रेमियों को, इस गांव में आमंत्रित किया। पट्टाचित्र कला, काफी हद तक उनके प्रयासों के कारण, एक कला के रूप में अंतर्राष्ट्रीय प्रशंसा अर्जित कर पाया है।रघुराजपुर भी एकमात्र ऐसी जगह है जहां पाटा मिल सकता है। यह वह पारंपरिक सजावट हैं जो भगवान जगन्नाथ के सिंहासन के नीचे और रथ यात्रा उत्सव के दौरान तीन रथों पर इस्तेमाल की जाती है, जो रथ यात्रा पुरी शहर में हर साल आयोजित की जाती हैं। यह आकर्षक शहर रघुराजपुर, नारियल, ताड़, आम और कटहल के पेड़ों के झुरमुटों के बीच स्थित है। गांव में दो मुख्य सड़कें हैं और करीब 120 घर हैं, जो भित्ति चित्रों से सजे रहते हैं।

रघुराजपुर