राष्ट्रीय युद्ध स्मारक

इंडिया गेट के पास, राजपथ के करीब स्थित, राष्ट्रीय युद्ध स्मारक उन बहादुरों और शहीदों के लिए श्रद्धांजलि का प्रतीक है जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। एक विशाल स्मारक, यह उन सैनिकों को समर्पित है जिन्होंने 1962 में भारत-चीन युद्ध, 1947, 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध, श्रीलंका में भारतीय शांति सेना बल के संचालन और 1999 के कारगिल संघर्ष में अपनी जान दी थी। देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले बहादुरों और शहीदों को श्रद्धांजलि देने का प्रतीक यह राष्ट्रीय युद्ध स्मारक दिल्ली के केंद्र में स्थित है। एक वास्तुशिल्पीय चमत्कार की तरह, यह एक विशेष विचारधारा के चिन्हात्मक प्रारूप इंडिया गेट की एकदम सीध में है। पेड़ों की हरियाली युक्त कतारें स्मारक की गोलाकार परिधि के अंदर निहित हैं। यह विशाल स्मारक उन सैनिकों को समर्पित है जिन्होंने 1962 में भारत-चीन युद्ध, 1947, 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्धों, श्रीलंका में भारतीय शांति सेना बल के संचालन और 1999 के कारगिल संघर्ष में अपनी जान दी थी। स्मारक की वास्तुकला इसकी समरूपता के के कारण उल्लेखनीय है। इसकी दीवारों को महाभारत में चक्रव्यूह कहे जाने वाले एक प्राचीन भारतीय युद्ध व्यूह की तरह बनाया गया है। स्मारक में चार संकेंद्रित दीवारें या चक्र (अमर चक्र, वीरता चक्र, त्याग चक्र और रक्षक चक्र) हैं जो भारतीय सशस्त्र बलों के महत्व को दर्शाते हैं। सबसे बाहरी रक्षक चक्र या सुरक्षा चक्र है जिसमें नागरिकों को प्रतीकात्मक आश्वासन के रूप में पेड़ों की कतारें लगी हैं, जो उन्हें आश्वस्त करती हैं कि वे सभी खतरों से सुरक्षित रहेंगे। प्रत्येक पेड़ देश की सीमाओं की सुरक्षा करते हुए एक सैनिक का प्रतिनिधित्व करता है। त्याग चक्र या सर्किल ऑफ सैक्रिफ़ाइस में प्रत्येक सैनिक के लिए उसका नाम, रेजिमेंट और सोने में अंकित पहचान संख्या के लिए एक ग्रेनाइट टैबलेट है। दूसरा वृत्त वीरता चक्र या शौर्य चक्र है, जो कि एक ढकी हुई गैलरी है, जो भारतीय सेना, वायु सेना और नौसेना द्वारा वीरतापूर्ण लड़ी गई लड़ाइयों को दर्शाती कांस्य भित्ति चित्रों को प्रदर्शित करती है। इस प्रदर्शन में लोंगेवाला की लड़ाई, गंगासागर की लड़ाई, टिथवाल की लड़ाई, रेजांगला की लड़ाई, ऑपरेशन मेघदूत और ऑपरेशन ट्राइडेंट के दृश्य हैं। स्मारक के केंद्र एक लंबा चतुष्कोण स्तंभ है जो चक्रव्यूह की शुरुआत का प्रतीक है। यह चतुष्कोण स्तंभ, अमर चक्र या सर्किल ऑफ इम्मोर्टिलिटी में स्थित है और उसके ऊपर शेर बना है। यह एक आधार पर खड़ा है, जिस पर हिंदी कवि जगदंबा प्रसाद मिश्रा के अमर शब्द "शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का यही निशान होगा," अंकित हैं। चक्र के मध्य में एक हमेशा जलते रहने वाली ज्योति भी है जो शहीदों की अमर भावना का प्रतीक है। बाहर निकलने के रास्ते पर, केंद्र के  एकदम सीध में, एक अकेले खड़े सैनिक की प्रतिमा है। यह इस विश्वास को दर्शाती है कि एक सैनिक न कभी सोता है और न कभी  मरता है। स्मारक के उत्तर परिसर में सेना के अधिकारियों की पत्नियों द्वारा संचालित एक स्मारिका की दुकान है, जिसमें विभिन्न प्रकार के स्मृति चिन्ह और स्मारकों की बिक्री होती है। दक्षिण छोर की ओर एक श्रद्धांजलि स्क्रीन है जिस पर शहीदों के नाम, कैडर और पद लिखा हैं। परम योद्धा स्थल चारों तरफ से हरियाली से घिरा हुआ है और परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले 21 योद्धाओं की उसमें प्रतिमाएं हैं। उसे  सर्वोच्च सैन्य सजावट जो युद्ध के दौरान वीरता के एक विशिष्ट कार्य को प्रदर्शित करने के लिए प्रदान की जाती है, मिला है। तीन पुरस्कार विजेताओं, जो जीवित हैं, उनकी भी अर्ध प्रतिमाएं यहां लगी हुई हैं।

राष्ट्रीय युद्ध स्मारक

किला राय पिथौरा

दिल्ली का ऐतिहासिक रत्न, राय पिथौरा किला या लाल कोट का निर्माण राजपुर के राजा पृथ्वी राज चौहान द्वारा किया गया था, इसलिए इसे राय पिथौरा भी कहा जाता था। यह विशाल किला आज भी अपनी भव्यता लिए जाना जाता है, इस किले के अवशेषों को कुतुब मीनार, साकेत, वसंत कुंज, मेहरौली और किशनगढ़ के क्षेत्रों में देखा जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि यहां पर पहले, राय पिथौरा नाम का एक शहर था, जिसकी चारों ओर से किलाबंदी की हुई थी। इसे दिल्ली का पहला शहर माना जाता है, जिसका निर्माण 8 वीं शताब्दी में तोमर राजाओं के द्वारा किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि जब पृथ्वी राज चौहान कुतुब-उद-दीन ऐबक से हार गये थे, तो यह किला मामलुक वंश के कब्जे में आ गया था। तब से लेकर आज तक किले के ढांचे में कोई नवीनीकरण नहीं हुआ। आज, यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अंतर्गत आता है और यह किला घूमने के लिए एक दिलचस्प जगह है।

किला राय पिथौरा

संसद भवन

भारत का संसद भवन दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र का शासन केंद्र है। इस भवन की इमारतें दिल्ली की सबसे प्रभावशाली इमारतों में से एक है। यह समरूपता और वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है। इसका आकार गोलाकार है। इस भवन की संरचना में राज्य सभा, लोकसभा और केंद्रीय पुस्तकालय के तीन अर्धवृत्ताकार कक्ष हैं। इस भवन की सुंदरता को बढ़ाने के लिए इसमें लगभग 144 स्तंभ और सुंदर बगीचे हैं। इस इमारत की चार दीवारी की यह विशेषता है कि उसके बलुआ पत्थर से बने भागों की बेहतरीन ज्यामितीय आकृतियों में तराशा गया है। इस भवन में कोई भी व्यक्ति अधिकारिक अनुमति के बिना प्रवेश नहीं कर सकता है।संसद भवन की नींव कनॉट के ड्यूक द्वारा डाली गई थी और इसका निर्माण वर्ष 1921 में पूरा हुआ था। इस भवन का उद्घाटन वर्ष 1927 में लॉर्ड और लेडी इरविन द्वारा किया गया था। इस भवन को हर्बर्ट बेकर ने डिजाइन किया था। ऐसा कहा जाता है कि इस भवन में ही भारत का संविधान तैयार किया गया था।

संसद भवन

फ़िरोज़ शाह कोटला किला

दिल्ली की सबसे पुरानी संरचनाओं में से एक, फ़िरोज़ शाह कोटला किला, सन् 1354 में, सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुगलक द्वारा बनवाया गया था। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, यह किला तब बनवाया गया था जब शासक ने पानी की कमी के कारण अपनी राजधानी तुगलकाबाद से फिरोजाबाद स्थानांतरित करने का फैसला किया। इसलिए इस किले का निर्माण पवित्र यमुना नदी के किनारे पर किया गया था। किले के परिसर में कुछ शानदार बगीचे, मस्जिद, महल आदि हैं। किले के प्रवेश द्वार पर शासक के नाम पर, एक विशाल लोहे का दरवाजा है और किले की दीवारें 15 मीटर तक ऊंची है। हालांकि किले की कई संरचनाएं आज खंडहर हो चुकी हैं, लेकिन यहां पर मौजूद सीढ़ीदार बाउली अभी भी अच्छी स्थिति में है। किले की एक दिलचस्प विशेषता यह है कि इसमें एक अशोक स्तंभ है, जिसे फिरोज शाह द्वारा अंबाला से दिल्ली लाया गया था। यह 13 मीटर ऊंचा है और इस पर अशोक के सिद्धांतों के लेख अंकित हैं।

फ़िरोज़ शाह कोटला किला

पुराना किला

विशाल क्षेत्र में फैला यह किला उन पुराने सात शहरों में से यह छठा शहर था, जिस पर आज की आधुनिक दिल्ली खड़ी है। यह 16 वीं शताब्दी में बने एक पत्थर का किला है। महाकाव्य महाभारत में भी इस स्थान का उल्लेख मिलता है और कहा जाता है कि इसके पास ही इंद्रप्रस्थ के प्रसिद्ध शहर के अवशेष हैं। किले में उत्खनन से पता चलता है कि यह क्षेत्र लगभग 300 ईसा पूर्व काल से बसा हुआ है। कुछ हद तक आयताकार रूप में बने इस किले की मोटी दीवारों पर कंगूरे बने हैं, और इसके तीन द्वार हैं जिसके दोनों ओर गढ़ बने हैं। प्राचीन काल में, यह किला एक विस्तृत खाई से घिरा हुआ था, जो यमुना नदी से जुड़ा हुआ था। कहते हैं कि उस वक्त यमुना किले के पूर्व में बहती थी। इसका उत्तरी द्वार इस्लामी नुकीले मेहराब और हिंदू छत्रियों और कोष्ठकों का मिश्रण है। किले की दीवारें और प्रवेश द्वार मुगल सम्राट हुमायूं द्वारा बनवाये गए थे और किले के काम को शेर शाह सूरी ने आगे बढ़ाया था। शेर शाह सूरी ने 16 वीं शताब्दी के मध्य में दिल्ली पर शासन किया था और उसने हुमायूं को हराया था। इसके अंदर एक सीढ़ीदार बाउली है, एक बड़ा दुर्ग है जिसे पुस्तकालय-सह-वेधशाला और एक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। हुमायूँ ने सन् 1533 में इसका निर्माण कार्य शुरू करवाया था, लेकिन कुछ वर्षों के बाद शेर शाह के हाथों उन्हें हार का मुह देखना पड़ा था। लगभग 15 साल बाद, हुमायूँ ने फिर इस किले पर कब्जा कर लिया था। लेकिन उसके कुछ समय बाद ही उसकी मृत्यु पुस्तकालय की सीढ़ियों से नीचे गिरने से हो गई। हर शाम आयोजित किए जाने वाले एक शानदार लाइट एंड साउंड शो में इस किले की कहानी को प्रदर्शित किया जाता है।

पुराना किला

सफदरजंग किला

समय की कसौटी से अछूता, सफदरजंग मकबरा, एक सुरम्य पृष्ठभूमि के साथ बेहद खूबसूरत नज़ारा पेश करता है। यह संगमरमर और बलुआ पत्थर से बना एक सुंदर वास्तुशिल्प का नमूना है। इसे सन् 1754 में एक सक्षम प्रशासक और राजनेता, मुहम्मद मुकीम इन-खुरासां की याद में बनवाया गया था; और उन्हें तत्कालीन सम्राट द्वारा सफदरजंग की उपाधि से सम्मानित किया गया था। इस स्मारक को एक इथोपियाई वास्तुकार द्वारा डिजाइन किया गया था और इसके केन्द्र में एक बड़ा गुंबद है। यह एक ऊंचे मंच पर बनाया गया है, जो विशाल वर्ग आकार के उद्यानों से घिरा हुआ है जिसके प्रत्येक किनारे की लंबाई 280 मीटर है। इस मकबरे के सामने के
हिस्से और इसके पीछे बने मकानों में कई कमरे और एक पुस्तकालय है। इसकी सतहों पर कई अरबी लेख अंकित हैं। सफदरजंग और उनकी पत्नी, अमत जहां बेगम के दफन कक्ष को स्मारक के एक भूमिगत कक्ष में संरक्षित किया गया है। पूरा स्मारक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की संरक्षण में है।

सफदरजंग किला

तुगलकाबाद

दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित, तुगलकाबाद प्राचीन स्मारकों से भरा हुआ है। 14 वीं शताब्दी में दिल्ली पर शासन करने वाले तुगलक वंश की यह राजधानी थी। इस शहर में पत्थर के आकर्षक किले हैं, जो इसे एक अनियमित घेरे से घेरे हुए है। तुगलक वंश के स्मारकों की विशिष्ट विशेषता उसकी ढलानें और मलबे से भरी शहर की दीवारें हैं, जिनकी ऊंचाई 10-15 मीटर तक है। ये दीवारें युद्धपरक मुड़ेरों से सुसज्जित हैं और इसकी सुरक्षा को और सशक्त करने के लिये उसके उपर दो मंजिले दुर्ग बने हैं। शहर का मुख्य आकर्षण तुगलकाबाद किला है, जिसकी स्थापना सन् 1386-1321 में गयासुद्दीन तुगलक ने की थी। यह किला अरावली पर्वतमाला की पहाड़ियों पर स्थित है और इसकी दीवारें 6 किमी तक लंबी हैं। इस किले के निर्माण का मुख्य उद्देश्य लगातार होने वाले मंगोल हमलों के खिलाफ इसकी रक्षा करना था। शहर के अन्य आकर्षणों में एक बड़ा कृत्रिम जल भंडार, आदिलाबाद का किला आदि शामिल हैं।

तुगलकाबाद

राजघाट

भारत के राष्ट्रपिता माने जाने वाले मोहनदास करमचंद गांधी की स्मृति में निर्मित यह समाधि, राजघाट संगमरमर का एक मंच है, जहां 31 जनवरी, सन् 1948 को महात्मा गांधी का अंतिम संस्कार किया गया था। यमुना नदी के तट पर स्थित, राजघाट साफ-सुथरे उद्यानों से सज्जित है और यहां पेड़ों को बड़े ही सुंदर तरीके से लगाया गया है। इस घाट पर, गांधी जी के नश्वर अवशेषों का अंतिम संस्कार किया गया था। यह समाधि स्वयं गांधी जी का एक सच्चा प्रतिबिंब है और उनकी सादगी का परिचय देती है। यहां ईंटों से बना एक चबूतरा है, जहां उनके मृत शरीर को जलाया गया था और यह काले संगमरमर का मंच, संगमरमर के किनारों से घिरा है। गांधीजी के मुख से निकले उनके आखिरी शब्द 'हे राम' उस स्मारक पर अंकित है। पास ही में एक शाश्वत ज्योति जलती रहती है। भूदृश्य को सुंदर बनाने वाले विभिन्न तरह के वृक्षों को अनेक गणमान्य लोगों, जैसे रानी एलिजाबेथ द्वितीय, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर, ऑस्ट्रेलिया के पूर्व अस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री गफ व्हिटमेन आदि द्वारा लगाए गए हैं, और एक पट्टिका पर उन सभी के नाम भी अंकित हैं। इस महान नेता को श्रद्धांजलि देने से पहले आगंतुकों को अपने जूते निकालने पड़ते हैं। शुक्रवार, जिस दिन उनकी मृत्यु हुई थी, उसे याद करने के लिए प्रत्येक शुक्रवार को यहां एक समारोह आयोजित किया जाता है। पास ही में दो संग्रहालय हैं, जो गांधीजी को समर्पित हैं। इस स्मारक को 'वाणु जी भूता' द्वारा डिजाइन किया गया था, और इस राष्ट्रीय स्मारक के वास्तुशिल्प डिजाइन के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, राजीव गांधी और संजय गांधी जैसे कई अन्य नेताओं के स्मारक भी राज घाट परिसर के अंदर हैं।

राजघाट

तीन मूर्ति भवन

दिल्ली के टूरिस्ट सर्किट पर एक ऐसा लोकप्रिय और ऐतिहासिक पड़ाव है, जिसे तीन मूर्ति भवन कहते हैं। यह भारत के पहले प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू का निवास स्थान था, जो वर्ष 1964 में अपनी मृत्यु तक यहां 16 साल तक रहे थे। इसके बाद, इस घर को उनके स्मारक के तौर पर सरकार को समर्पित कर दिया गया था। भवन को परिसर में खड़े तीन सैनिकों की प्रतिमाओं के कारण इसे 'तीन मूर्ति' कहा जाता है। ये तीन सैनिक, मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद के लांसर्स का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्हें प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सन् 1922 में सिनाई, फिलिस्तीन और सीरिया में प्राण गंवाने वाले बहादुर सैनिकों को सम्मानित करने के ध्येय से, उनके प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया था। तीन मूर्ति भवन को, ब्रिटिश वास्तुकार रॉबर्ट टौर्र रसेल ने, सन् 1930 में ब्रिटिश सेना के कमांडर-इन-चीफ के निवास स्थान के रूप में डिजाइन किया था। पर्यटक नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय भी जा सकते हैं। यहां आप नेहरू के पुराने कार्यालय को भी देख सकते हैं, जिन्हें उसी कलाकृतियों और फर्नीचर का उपयोग करके फिर से सजाया गया है। पुस्तकालय में बड़ी संख्या में वह पुस्तकें हैं, जो आधुनिक भारत के इतिहास का कच्चा-चिट्ठा बतलाती हैं। एक अन्य आकर्षण 'नेहरू तारामंडल' (प्लैनेटेरियम) है जो पूरे क्षेत्र के पर्यटकों को आकर्षित करता है। आप तारामंडल के आकाश थियेटर में होने वाले दिलचस्प शो और प्रस्तुतियों को भी देख सकते हैं।

तीन मूर्ति भवन

अग्रसेन की बाउली

दिल्ली की हलचल के बीचों-बीच एक विचित्र और शांत स्थान है, जिसे अग्रसेन की-बाउली कहते हैं। यह राजधानी के इतिहास एक झलक पेश करता है। यह 60 मीटर लंबी और 15 मीटर चौड़ी एक ऐतिहासिक सीड़ीनुमा कुआं है। इसके विरासती चरित्र, जटिल संरचना और शांत वातावरण के चलते यह स्मारक अक्सर एक सिनेमाई पृष्ठभूमि प्रदान करता है जिसे फिल्म निर्माता बेहद पसंद करते हैं, जिस कारण इसे आप 'सुल्तान' और 'पीके' जैसी फिल्मों में इसे देख सकते हैं। जैसे ही आप बाउली में गहरे उतरते हैं, आपको एकाएक शीतलता का अहसास होता है। हो सकता है आपको डर की भावना भी अक्समात जकड़ ले क्यों कि इस स्मारक एक समय में भूतिया माना जाता था। कहा जाता है कि बाउली में मौजूद पानी, काले जादू से भरा हुआ है और जो कोई भी इसे देखता है वह एक अजीब मदहोशी की हालत में पहुंच जाता है और इसमें छलांग लगा कर सीधा मृत्यु को प्राप्त करता है। बाउली में 108 सीड़ियां हैं और मेहराबदार तीन मंजिले दोनों तरफ हैं।आज यह स्मारक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित है। इसके निर्माता के बारे में जानकारी हेतु शायद ही कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड है, लेकिन यह माना जाता है कि इसे महान राजा अग्रसेन द्वारा बनवाया गया था और अग्रवाल समुदाय द्वारा इसे 14 वीं शताब्दी में फिर से बनवाया गया था।

अग्रसेन की बाउली

कनॉट प्लेस

दिल्ली की दिल की धड़कन कहा जाने वाला, कनॉट प्लेस एक विरासत स्थल है, जिसे जियोरजियन शैली की वास्तुकला में निर्मित किया गया है। भोजनालयों, उच्च श्रेणी की दुकानें, पार्लर, थिएटर और बुक स्टोर के साथ साथ, यह बाजार दिल्ली में अधिकांश गतिविधियों का केंद्र है। दो संकेंद्रित वृतों में फैले कनॉट प्लेस का एक विंटेज चरित्र है, पर वहीं उसके विपरीत यहां अनेक आधुनिक दुकानें और कैफ़ें मौजूद हैं जो तीक्ष्ण नियोन लाइट से प्रकाशित रहते हैं। किसी भी दिन, यहां आपको अनेक छात्र-छात्राएं और ऑफिस कर्मचारी सड़कों पर घूमते, चाट की थाली और सुखद मौसम का आनंद लेते हुए दिख जाएंगे। कनॉट प्लेस में स्टॉल और स्टोर्स के आने से पहले, यह एक सिनेमा सेंटर हुआ करता था। सन् 1920 के दशक में, रूसी बैले, उर्दू नाटक और मूक फिल्मों को यहां विभिन्न थिएटरों में प्रदर्शित की जाती थी। रिवोली और ओडियन जैसे विरासती सिनेमाघर अभी भी अपनी प्राचीनता को संरक्षित रखे हुए हैं। इन बड़े फिल्म थिएटरों में फिल्म देखने का अपना एक अलग ही रोमांच है। कनॉट प्लेस का एक और मुख्य आकर्षण यहां का हनुमान मंदिर है, माना जाता है कि यह उतना ही प्राचीन है जितना इसके आस पास का इलाका। दूर-दूर से भक्तों को आकर्षित वाले इस मंदिर का उल्लेख महाकाव्य महाभारत में भी मिलता है। इस मंदिर का नाम गिन्नीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल है, जिसमें उपासकों ने यहां 24 घंटे तक लगातार 'श्री राम जय राम जय राम' मंत्र का जाप किया था। हलचल से भरे इस बाजार के बीच एक शांत स्थान है, गुरुद्वारा बंगला साहिब, जो संभवतः कनॉट प्लेस का सबसे लोकप्रिय आकर्षण है। एक मील की दूरी से ही इसका धूप में चमकता सुनहरा गुंबद दिखाई देता है। जैसे ही आप इसके परिसर में प्रवेश करते हैं, आपको एक अद्भुत शांति की भावना का एहसास होता है। इसके गर्भगृह में श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद, आप गुरुद्वारे के शांत और खूबसूरत तालाब के चारों ओर टहल सकते हैं। सघन नक्काशी से सज्जित यह प्राचीन सफेद इमारत, गुरुद्वारा बंगला साहिब एक दर्शनीय स्थल है। पर्यटक नजदीक के जंतर मंतर पर भी जा सकते हैं, जो उत्तर भारत की पांच खगोलीय वेधशालाओं में से एक है। यह अपनी बेजोड़ ज्यामितीय संरचना के अद्भुत संयोजन के कारण दुनिया भर के आर्किटेक्ट, कलाकारों और कला इतिहासकारों का ध्यान आकर्षित करता है। कनॉट प्लेस का सेंट्रल पार्क एक अन्य मुख्य आकर्षण है, जहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आयोजित किया जाता है। यहां हरे-भरे बगीचे हैं, जहां कई फव्वारे लगे हुए हैं और यहां आपको देश का सबसे ऊंचा लहराता हुआ झंडा भी दिख जाएगा। कनॉट प्लेस की इस भव्य हाथीदांत की सफेदी वाली संरचना सन् 1929 में अंग्रेजों द्वारा लुटियन्स की दिल्ली में स्थानांतरित करने के लिए बनाया गई थी। इसका नाम कनॉट के पहले ड्यूक के नाम पर रखा गया है, जो रानी विक्टोरिया का बेटा था। यह दुनिया के सबसे महंगे ऑफिस इलाकों में से एक है, और अपने पर्यटकों को विविधता का एक अनूठा मिश्रण प्रस्तुत करता है। एक ऐतिहासिक संरचना से लेकर दुकानदारों का स्वर्ग तक कहा जाने वाला यह स्थान, किसी की भी दिल्ली यात्रा का एक अभिन्न भाग होना ही चाहिये।

कनॉट प्लेस

राष्ट्रपति भवन

भारत के राष्ट्रपति का आधिकारिक निवास के तौर पर, राष्ट्रपति भवन दिल्ली का सबसे प्रमुख स्थल है। राष्ट्रपति भवन, वास्तुकला की एडवर्डियन बरोक शैली में निर्मित है। यह इमारत शास्त्रीय रूपांकनों से सज्जित है, जो विरासत और अधिकार का प्रतीक हैं। राष्ट्रपति भवन 321 एकड़ के क्षेत्र में फैला है और इसमें 340 कमरे हैं, जिनमें अतिथि कक्ष, स्वागत कक्ष, कार्यालय, स्टाफ़ और अंगरक्षकों के आवास भी शामिल हैं। राष्ट्रपति भवन का निर्माण सन् 1929 में हुआ था और इसे राष्ट्रपति निवास और वाइसराय हाउस भी कहा जाता है। इससे पहले, यह ब्रिटिश वायसराय का निवास स्थान था। राष्ट्रपति भवन, जो वास्तुशिल्प कला का अद्भुत उदाहरण है, उसका निर्माण 17 वर्षों में किया गया था। राष्ट्रपति भवन का डिजाइन एडवर्ड लुटियन्स और हर्बर्ट बेकर ने तैयार किया था। भवन का प्रसिद्ध मुगल गार्डन 15 एकड़ भूमि में फैला है और इसमें 159 किस्मों के गुलाब, 60 किस्मों की बोगनवेलिया और कई अन्य किस्मों के फूल मौजूद हैं। राष्ट्रपति भवन संग्रहालय परिसर की यात्रा करना भी अपने आप में एक दिलचस्प अनुभव है। यहां का एक और प्रमुख आकर्षण है, राष्ट्रपति की एक पुरानी और छोटी बग्गी, जिसमें लगे जीवंत आकार के घोड़ों की मूर्तियां बिलकुल असली मालूम होती हैं। आप जॉर्डन के राजा द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भेंट की गई मर्सिडीज कार को भी देख सकते हैं। इतिहास पर करीब से नज़र डालने के लिए पर्यटकों के लिये, इस भवन और स्वतंत्रता आंदोलन की दुर्लभ तस्वीरों को यहां एक मेज पर प्रदर्शित किया गया है। परिसर में एक उपहार काउंटर भी है, जिस पर राष्ट्रपति द्वारा दुनिया के विभिन्न देशों से प्राप्त किए गए उपहारों को दर्शाया गया है। पर्यटकों को विशेष रूप से 3-डी होलोग्राफिक छवियों वाले एक विशेष निर्मित वर्ग कमरे में ले जाया जाता है, जहां विभिन्न राष्ट्रपतियों के भाषणों के साथ इन छवियों को दिखाया जाता है। संग्रहालय में कई खिड़कियां हैं, जहां अभी तक बने सभी राष्ट्रपतियों के व्यक्तिगत सामान की प्रदर्शनी लगाई गई है। देश के सभी राजनीतिक नेताओं के बहुत पहले, महात्मा गांधी ने सन् 1931 में राष्ट्रपति भवन का दौरा किया था जब उन्हें लॉर्ड इरविन ने आमंत्रित किया था। वे एक चुटकी नमक, अंग्रेजों के विरोध के निशानी के रूप में, अपने साथ यहां लेकर आए थे। यह बैठक अंततः सन् 1931 के गांधी-इरविन समझौते में सम्पन्न हुई थी।

राष्ट्रपति भवन

जंतर मंतर

जंतर मंतर, जयपुर के महाराजा जय सिंह द्वितीय द्वारा, 1724 ई. में उत्तर भारत में बनवाये गये पांच खगोलीय वेधशालाओं में से एक है। यह अपनी बेजोड़ ज्यामितीय संरचना के अद्भुत संयोजन के कारण दुनिया भर के आर्किटेक्ट, कलाकारों और कला इतिहासकारों का ध्यान आकर्षित करता है। यह नग्न आंखों से खगोलीय स्थितियों के अवलोकन के लिए डिज़ाइन किया गया था। यह टॉलेमी के स्थिति संबंधी खगोल विज्ञान की परंपरा का एक हिस्सा है, जो अनेक सभ्यताओं में आम था।जंतर मंतर में 13 खगोल विज्ञान उपकरण मौजूद हैं, जिनका उपयोग ग्रहों, सूर्य और चंद्रमा की चाल और समय की भविष्यवाणी करने के लिए किया जाता था। खगोलीय तालिकाओं का प्रयोग खगोलीय पिंडों की सटीक जानकारी प्राप्त करने के लिए संकलित किया गया था। जंतर मंतर के प्रमुख आकर्षण हैं, मिश्र यंत्र, सम्राट यंत्र और जयप्रकाश यंत्र। सम्राट यंत्र एक विशाल सूर्य घड़ी है, जो पृथ्वी की धुरी के समानांतर खड़ी है और समय की सही जानकारी देने में मदद करती है। जयप्रकाश यंत्र एक गोलार्ध के आकार का यंत्र है और इसका उपयोग सितारों की सही स्थिति को अंकित चिह्नों के साथ संरेखित करने के लिए किया जाता है। वहीं मिश्र यंत्र का उपयोग वर्ष के सबसे छोटे और सबसे बड़े दिनों का पता लगाने के लिए किया जाता है। इन सभी उपकरणों को ईंट और मलबे के साथ बनाया गया है और इसे चूने के साथ प्लास्टर किया गया है। पर्यटक, जंतर मंतर के पूर्व में स्थित, एक छोटे से भैरव मंदिर को भी जाकर देख सकते हैं। कहा जाता है कि महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय को खगोलीय पिंडों की गतिविधियों का पता लगाना बेहद पसंद था, जिसके कारण उन्होंने जंतर मंतर का निर्माण को शुरु कराया था, ताकि इनकी दूरी, स्थान और गति की गणना की जा सके।

जंतर मंतर

इंडिया गेट

देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले बहादुर सैनिकों को श्रद्धांजलि के रूप में
खड़ी यह इमारत, दिल्ली के प्रतिष्ठित स्थलों में से एक है। इंडिया गेट का निर्माण बलुआ पत्थर से किया गया है, और इसकी उंचाई 42 मीटर है। यह इमारत राष्ट्रीय राजधानी में बनी अपनी तरह की पहली इमारत है, जिसे अंग्रेजों ने बनवाया था। सन् 1919 के अफगान युद्ध में, उत्तरी पश्चिमी सीमा पर मारे गए 13,516 सैनिकों और प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए भारतीय सेना के 90,000 सैनिकों के नामों को इंडिया गेट की दीवारों पर अंकित किया गया है। स्मारक के आधार का निर्माण भरतपुर के लाल रंग के पत्थरों से किया गया है। इंडिया गेट की संरचना फ्रांस की संरचना, आर्क-द-ट्रायम्फ के समान है। इंडिया गेट हरे-भरे बागानों से घिरा हुआ है, जो परिवारों के साथ पिकनिक मनाने के स्थल के रूप में काफी लोकप्रिय है। इस स्मारक पर जाने का सबसे अच्छा समय रात के वक्त होता है। रात के समय इंडिया गेट सुनहरी रोशनी में नहाया हुआ लगता है और अंधेरे आकाश में इसकी चमक और निखर कर आती है। इस भव्य स्मारक की आधारशिला सन् 1921 में ड्यूक ऑफ कनॉट द्वारा रखी गई थी, जिसे ब्रिटिश वास्तुकार सर एडविन लुटियन्स द्वारा डिजाइन किया गया था। इन्होंने ही नई दिल्ली की कई औपनिवेशिक संरचनाओं को भी डिजाइन किया था। एक दशक बाद, यह स्मारक तत्कालीन वाइसराय, लॉर्ड इरविन द्वारा भारत को समर्पित किया गया था। संगमरमर से बनी 'अमर जवान ज्योति', इंडिया गेट के समक्ष स्थित है और इसका निर्माण वर्ष 1971 में किया गया था। इसे वर्ष 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के दौरान प्राण न्योछावर करने वाले बहादुर सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए इसे बनाया गया था। इसमें जलने वाली लौ की पहरेदारी वर्दीधारी सैनिकों द्वारा अनवरत की जाती है। लौ के समीप एक चमकती हुई राइफल गड़ी है, जिसके ऊपर सैनिक का एक हेलमेट रखा हुआ है। इंडिया गेट पर गणतंत्र दिवस के दिन एक भव्य परेड का आयोजन होता है, और इस दिन राष्ट्रपति अमर जवान ज्योति पर माल्यार्पण करते हैं। यह परेड राजपथ (जिसे पहले किंग्सवे कहा जाता था) पर आयोजित की जाती है। यह एक काफी चौड़ी सड़क है, जो इंडिया गेट से होकर गुजरती है।

इंडिया गेट

लाल किला

दिल्ली के केंद्र में स्थित राजसी लाल किला, लाल बलुआ पत्थर से बना मुगलों की वास्तुकला की विरासत के प्रमाण के रूप में है। दुनिया के सबसे खूबसूरत स्मारकों में से एक, यह यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल, किला-ए-मुबारिक के रूप में प्रसिद्ध है, और यह महलों, मंडपों और मस्जिदों से परिपूर्ण है। मुगल सम्राट शाहजहाँ द्वारा, अपनी राजधानी शाहजहानाबाद के महल किले के रूप में निर्मित लाल किला, अपनी विशाल किलेबंदी की दीवारों के लिए प्रसिद्ध है। किले की वास्तुकला इस्लामिक, फारसी, तैमूरिद और हिंदू शैलियों के बेजोड़ सम्मिश्रण को दर्शाती है। यहां के प्रमुखआकर्षणों में एक हैं दीवान-ए-ख़ास, जिसे शाह महल के नाम से भी जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर दीवान-ए-आम या हॉल ऑफ़ पब्लिक ऑडियंस और रंग महल (हरम का एक हिस्सा) है, जिसे इम्तियाज़ महल के नाम से भी जाना जाता है। यहां के अन्य स्मारक हैं, नौबत खाना (ड्रम हाउस), जहां से शाही संगीतकारों द्वारा शाही परिवार के सदस्यों के आने की घोषणा की जाती थी; हम्माम (शाही स्नानघर), और मुतम्मन बुर्ज या मुसम्मन बुर्ज, यह एक मीनार है जहां सम्राट खुद अपनी प्रजा से मिलने आते थे। जब मुगलों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी तो सन् 1739 में फारसियों ने, नादिर शाह की अगुवाई में आक्रमण कर किले को लूट लिया। आक्रमणकारियों द्वारा किले के अधिकांश ख़ज़ाने लूट लिए गए, जिसमें मशहूर मयूर सिंहासन भी शामिल था, जिसे शाहजहाँ ने सोने और रत्नों से जड़वा कर बनवाया था। इन रत्नों में कीमती कोहिनूर हीरा भी शामिल था। यहां स्मारकों के अलावा, हर शाम आयोजित किया जाने वाला साउंड एंड लाइट शो 'सोन एट लुमिये' है, जो पर्यटकों के लिए एक प्रमुख आकर्षण है। एक घंटे तक चलने वाला यह कार्यक्रम भारत में मुगल साम्राज्य के इतिहास को दर्शाता है, और उनके गौरवशाली अतीत के साथ-साथ उनके पतन की ओर ले जाने वाले घटनाओं के चरणों की झलक भी पेश करता है। इसमें व्यक्त किये गये वृतांतों को महान अभिनेता अमिताभ बच्चन ने अपनी आवाज़ दी है, जिसके चलते यह शो दर्शकों को पूरी तरह मंत्रमुग्ध कर लेता है। किले का प्रवेश द्वार लाहौर गेट है, जो रास्ता बाज़ार के इलाके चट्टा चौक की ओर जाता है। यह चौक, एक मेहराबदार मार्ग है जहां शाही दर्जी और व्यापारियों की दुकाने हैं, जो दुकानें देश के विभिन्न क्षेत्रों के विशिष्ट हस्तशिल्प और कपड़ों को बेचते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि लाल किले में कई सैन्य बैरके भी हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने बनाया था। लाल और सफ़ेद बलुआ पत्थर से निर्मित, ये बैरक औपनिवेशिक वास्तुकला के बेहतरीन नमूने हैं, और इसकी प्राचीन सौंदर्य से कोई भी तुरंत ही प्रभावित हो जाता है। सन् 1857 में, ये बैरक ब्रिटिश सेना को यहां रखने के लिये बनाये गये थे जब उन्होने बहादुर शाह जफर, अंतिम मुगल सम्राट को उनकी सत्ता से हटा दिया गया था। ब्रिटिश शासन समाप्त होने के बाद, बैरकों का उपयोग भारतीय सेना के जवानों द्वारा किया जाने लगा, पर भारतीय सेना ने भी इन्हें सन् 2003 में खाली कर दिया। आज, इनमें से कुछ बैरकों को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के सहयोग से संग्रहालयों और कला दीर्घाओं में बदल दिया गया है। हर साल स्वतंत्रता दिवस पर भारतीय प्रधानमंत्री लाहौर गेट की प्राचीर से राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं, जो लाल किले को देश के सबसे महत्वपूर्ण स्मारकों में से एक बनाता है। इसकी अनोखी बनावट और शानदार वास्तुकला ने राजस्थान, दिल्ली और आगरा के कई स्मारकों के निर्माण को प्रेरित किया है। इस ऐतिहासिक किले की यात्रा, आपको दिल्ली के बीते युग का एक शानदार अनुभव पाने का मौका प्रस्तुत करता है। लाल किले के निर्माण में 10 वर्ष (सन् 1638-48) लगे थे। उस समय किले के बगल से यमुना नदी गुज़रती थी, जिसने वक्त के साथ अपने बहाव का रूख बदल कर अब दूर हो गई है। इतिहासकार यह भी बताते हैं कि किले से एक नहर बाहर निकलती थी, जिसके दोनो ओर पेड़ लगे थे। इसे नहर-ए-बिहिश्त या स्वर्ग की नहर कहा जाता था, और इस नहर के पानी का स्रोत यमुना नदी थी।

लाल किला

कुतुब मीनार

दिल्ली सल्तनत के इतिहास जितनी पुरानी यह प्रतिष्ठित 'कुतुब मीनार', ईंटों से बनी दुनिया की सबसे ऊंची मीनार है, जो शहर की आकाश रेखा पर प्रबल रूप से छाई रहती है। 73 फुट ऊंची यह पांच मंजिला टॉवर, एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल, मध्ययुगीन भारत की सबसे शानदार इमारतों में से एक है। मीनार की पहली तीन मंजिले लाल बलुआ पत्थर में बनी हैं, जब कि चौथी और पांचवीं मंजिलें संगमरमर और बलुआ पत्थर से बनी हैं। सभी पांच मंजिलें बाहर निकली दीर्घाओं से सुसज्जित हैं। दिल्ली के महरौली क्षेत्र में स्थित, कुतुब मीनार को कुतुब-उद-दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया था। कुतुब-उद-दीन ने ही भारत में मामलुक वंश (सन् 1206-1290) की नींव डाली थी। अफगानिस्तान के गजनी शहर के विजय स्तम्भ से प्रेरित होकर, कुतुब-उद-दीन ने इसका निर्माण कार्य 1192 ईस्वी में शुरू कराया था। लेकिन दुर्भाग्यवश, कुतुब-उद-दीन-ऐबक, इसके पूरा होने तक जिंदा न रह सका। मीनार को आखिरकार उसके उत्तराधिकारियों इल्तुतमिश और फिरोज शाह तुगलक ने पूरा करवाया। यहां का एक और आकर्षण कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद है, जो मीनार के ठीक बगल में है। कुतुब-उद-दीन-ऐबक द्वारा निर्मित इस मस्जिद को कुतुब परिसर की पहली इमारत माना जाता है, जब कि इस परिसर में कई और स्मारकें मौजूद हैं। इसमें सबसे लोकप्रिय 'लौह स्तंभ' है, जिसे अशोक स्तंभ के नाम से भी जाना जाता है, और जो चौथी शताब्दी का बना हुआ है। यह लगभग 24 फीट ऊंचा है और छह टन से अधिक वजन का है। कहा जाता है कि इसमें कभी ज़ंग नहीं लगती। परिसर में आने वाले पर्यटकों के बीच यह एक लोकप्रिय धारणा है कि यदि आप स्तंभ से अपनी पीठ सटाकर, उलटे बाहों से स्तंभ को चारों ओर घेरकर यदि हाथों की उंगलियों को एक दूसरे से छू लेते हैं, तो आप जो भी इच्छा करेंगे वह पूरी हो जाएगी। इसका उदाहरण हिंदी फिल्म 'चीनी कम' के एक दृश्य में देखा जा सकता है, जिसमें प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन ने अभिनय किया था। पर्यटक अलाई दरवाजा भी जा सकते हैं जो लाल बलुआ पत्थरों से बना एक गुंबददार प्रवेश द्वार है, जिसे सफेद संगमरमर के पत्थरों से सजाया गया है। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा निर्मित, यह भव्य स्मारक कुशल तुर्की कारीगरों के शिल्प कौशल के वसीयतनामे के रूप में खड़ा है, जिन्होंने इसे बनाया था। यह इमारत के पास ही अलाई मीनार है, जिसे अलाउद्दीन खिलजी ने बनवाना शुरू किया था और जिसे वह कुतुब मीनार से दोगुना ऊंचा बनवाना चाहता था। दुर्भाग्यवश, सन् 1316 में खिलजी की मृत्यु के बाद इस मीनार का निर्माण ठप पड़ गया। आज, इस मीनार की पहली मंजिल पर एक विशाल मलबे की चिनाई देखने को मिलती है, जिसे पत्थर की एक परत से ढका जाने वाला था। यहां मौजूद इल्तुतमिश का मकबरा खुद सम्राट द्वारा बनवाया गया था, और दिल्ली में बनने वाले पहले मकबरों में से एक था। पर्यटक महरौली पुरातत्व पार्क में भी जा सकते हैं, जहां दिल्ली सल्तनत के कभी शासक रहे घियास-उद-दीन बलबन की कब्र है। कुतुब परिसर में जमाली कमाली मस्जिद है, और एक सूफी संत की कब्र भी है। यहां नवंबर और दिसंबर के महीनों में तीन दिवसीय 'कुतुब महोत्सव' आयोजित किया जाता है, जिसमें होने वाला शास्त्रीय नृत्य और संगीत, भारी मात्रा में भीड़ को परिसर की ओर आकर्षित करती है।

कुतुब मीनार

हुमायूँ का मकबरा

बड़े पैमाने पर अच्छे तरीके से छटाई किये उद्यानों से घिरा, हुमायूँ का विशाल मकबरा, दिल्ली के शानदार स्मारकों में से एक है। यह भारतीय उपमहाद्वीप में निर्मित पहला उद्यान मकबरा है। मुगल वास्तुकला का पर्याय बन चुके भव्य मकबरों में से एक, यह मकबरा ऐसा पहला स्मारक है, जो प्रेम और हसरत की एक कालातीत गाथा को दर्शाता है। मुग़ल सम्राट हुमायूँ की पहली पत्नी, साम्राज्ञी हाजी बेगम ने यह मकबरा, अपने शौहर हुमायूँ की याद में बनवाया था। इस मकबरे में सम्राट और उनकी बेगम दोनों की कब्रें मौजूद हैं। यह मकबरा आज भी उनके शाश्वत प्रेम के वसीयत के रूप में खड़ा है। फारसी वास्तुकार मिरक मिर्जा घियास द्वारा डिजाइन की गई यह भव्य इमारत, दुनिया के सभी कोनों से पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। जैसे ही आप ताड़ के पेड़ों से घिरे उद्यान में प्रवेश करेंगे, आप सामने ही एक सुंदर फव्वारा पाएंगे, जो फोटोग्राफी के लिए एक शानदार पृष्ठभूमि देता है। इस पूरे उद्यान को उद्यानपथों और पानी के नहरों द्वारा चार मुख्य भागों में विभाजित किया गया है; यह उद्यान इस्लाम के पवित्र ग्रंथ कुरान में वर्णित ' स्वर्ग उद्यान (पैराडाइज गार्डन)' का पर्याय है। उन चार मुख्य भागों को, पुनः 36 छोटे भागों में विभाजित किया गया है। स्मारक तक पहुंचने के लिए आपको राजसी द्वारों से गुजरना पड़ता है। इसके अंतिम द्वार से ठीक पहले, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा एक दर्शक दीर्घा बनाई गई है, जहां इस स्मारक की पुरानी तस्वीरें प्रदर्शनी में लगाई गई हैं, जो इस मकबरे की भव्यता को दर्शाती है। मकबरे की मुख्य इमारत लाल बलुआ पत्थर से बनी है, जबकि मकबरा सफेद और काले संगमरमर से बनाया गया है। एक आकर्षक द्वार से होते हुए आप मध्य कक्ष में जाएंगे, जिसमें हुमायूँ का मकबरा है। इस हॉल को जटिल नक्काशीदार खिड़कियों और खूबसूरती से डिजाइन की गई छत से सजाया गया है। यह पूरी इमारत एक काफी बड़े चबूतरे पर बनी हुई है, जिस पर कई और मकबरे हैं जिनमें साम्राज्ञी हाजी बेगम और राजकुमार दाराह शिकोह के मकबरे भी शामिल हैं। इस स्मारक का एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इसमें हुमायूँ के पसंदीदा नाई का मकबरा भी है। सन् 1857 में, अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र ने, अंग्रेजों द्वारा बंदी बनाये जाने और निर्वासित किये जाने के पहले, इस स्मारक का उपयोग अपने आश्रय के लिये किया था। परिसर के दाईं ओर ईसा खान की कब्र है, जो शेरशाह सूरी के दरबार में एक दरबारी थे। यह लोदी-युग की वास्तुकला को दर्शाता है, और इसका निर्माण 16 वीं शताब्दी में किया गया था। हुमायूँ का मकबरा के बेहद करीब, दिल्ली के एक अन्य लोकप्रिय आकर्षण है, हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह। इस दरगाह का निर्माण 14 वीं शताब्दी के सूफी संत निज़ामुद्दीन औलिया की कब्र के चारो ओर किया गया है।

हुमायूँ का मकबरा