अजंता की गुफाएं

औरंगाबाद से लगभग 107 किमी दूर, 32 बौद्ध गुफाओं के लिए प्रसिद्ध अजंता गुफाएं हैं। जिसे यूनेस्को वर्ल्ड हैरिटेज साइट का ख़िताब भी मिला है। पत्थरों को काट-काट कर बनाई गई अजंता की गुफाएं या तो चैत्य (तीर्थ) और प्रार्थना कक्ष हैं, या विहार (मठ) या आवासीय कोशिकाएं हैं।गुफाएं 9 और 10 चैत्य हैं, जिनमें अनेक चित्रकारियों के अवशेष है जो भारत की ज्ञात प्राचीनतम चित्रकारियों में हैं। गुफाएं 19, 26 और 29 महायान काल के चैत्य हैं, और बाकी सभी गुफाएं विहार हैं। अजंता, कुषाण काल के गांधार और मथुरा कला प्रणाली, गुप्त काल के सारनाथ कला प्रणाली, और उत्तर सातवाहन और इक्ष्वाकु काल के अमरावती कला प्रणाली को प्रदर्शित करता है।अजंता चित्रकला में भगवान बुद्ध के जीवन, जिसमें उनके पिछले सांसारिक अनुभव भी सम्मिलित हैं, और जातक कथाओं को दिखाया गया है। गुफाओं को काल अनुक्रम से दो चरणों में बांटा गया है, पूर्व बौद्ध गुफाएं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से पहली ईस्वी शताब्दी तक) और महायान गुफाएं (5वीं ईस्वी शताब्दी)।चूंकि अजंता दक्षिणापथ के प्राचीन व्यापार मार्ग पर है, इसलिए शुरुआती दौर में अजंता को ज्यादातर व्यापारियों द्वारा ही वित्त पोषित किया जाता था। दूसरे चरण में इसे प्रश्रय वाकाटकों से मिला। इन दाताओं की कहानियां पर चित्रकारियां बनाई गई हैं। भगवान बुद्ध, बोधिसत्व की अवदान कथाओं और जातक कथाओं पर बनाए गए भित्ति चित्र, और महायान पर आधारित विपुल सूत्र पर बनाये गये पटचित्र बहुत ही रोचक हैं। आश्रमों का संचालन 8 वीं ईस्वी शताब्दी तक होता रहा और फिर यह खो गया और ईस्वी 1819 तक इन्हें भुला दिया गया था।. 

अजंता की गुफाएं

एलोरा की गुफाएं

रॉक-कट वास्तुकला के सबसे अच्छे उदाहरणों में से एक एलोरा की गुफाओं में हिंदू, बौद्ध और जैन गुफाएं भी शामिल हैं। जिन्हें चौथी और नौवीं शताब्दी के दौरान छेनी से तराशकर बनाया गया था। इन 34 गुफाओं में से 12 बौद्ध, 17 हिंदू और 5 जैन गुफाएं हैं, जो लगभग 1,500 साल पहले के राष्ट्रकूट राजवंश के समय की हैं। इन्हें सन् 1983 में वर्ल्ड हैरिटेज साइट घोषित किया गया था, और अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा इसका रखरखाव किया जाता है।

एलोरा की गुफाएं

औरंगाबाद की गुफाएं

हरी-भरी पहाड़ियों की गोद में फैली, औरंगाबाद की गुफाएं किसी भी इतिहासकार के लिए काफी दिलचस्प विषय हैं। शहर के उत्तर में स्थित, 12 बौद्ध गुफाओं का एक समूह हैं जो लगभग तीसरी शताब्दी तक पुरानी हैं। हरी-भरी पहाड़ियों के बीच छिपी हुई इन रहस्यमयी गुफाओं की खूबसूरती, यहां की वास्तुकला और मूर्तिकला में तांत्रिक प्रभावों में देखा जा सकता है। इनमें से अधिकतर गुफाएं, विहार यानी आवासीय कक्ष हैं। विशेषज्ञों के अनुसार तीसरी और सातवीं गुफाएं सबसे आकर्षक हैं और उन्हें देखना न भूलें। इसके अलावा, पहली और तीसरी गुफाएं बाद के महायान काल की हैं। भूतल योजना की बात करें तो इसकी स्तंभों का खाका और इसके विस्तृत विवरण, अजंता की 21वीं और 24वीं गुफाओं के समान हैं। पश्चिमी समूह में पहली से पांचवी गुफाएं तक हैं, जबकि पूर्वी समूह में छठी से दसवी गुफाएं तक हैं। चौथी गुफा एक चैत्य है, जो अपने तरह की एकमात्र गुफा है और जिन्हें सतवाहना काल के आखिरी दौर में काट कर बनाया गया था। पत्थरों को काटकर बनाई गई इन गुफाओं से, यहां के शहरी परिदृश्य और बीबी के मकबरे की शानदार झलक दिखती है।छठी गुफा में सजी-धजी महिलाओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। आज भी ये मूर्तियां अच्छी स्थिति में हैं और पर्यटकों को उस समय के सौंदर्यकला का आभास कराती हैं। गुफा में एक बुद्ध की और एक गणेश की मूर्ति भी है। सातवी गुफा में गहनों से सजी महिलाओं की मूर्तियां हैं और यहां की शैली उस समय के तांत्रिक बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव को दर्शाती है।वर्ष 1847 में जेम्स बर्ड, अपने ऐतिहासिक शोधों के द्वारा औरंगाबाद की गुफाओं का उल्लेख करने वाले पहले व्यक्ति थे। बाद में, जॉन विल्सन और जेम्स बर्गेस ने गुफाओं को महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारकों के रूप में इनका विवरण विस्तार के साथ दिया।

औरंगाबाद की गुफाएं

दौलताबाद किला

200 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित और 95 हेक्टेयर में फैला, दौलताबाद का किला डेक्कन की दृढ़ता और रणनीतिक विद्वता का प्रतीक है। इसके चारों ओर और इसके अंदर एक मजबूत रक्षा प्राचीर होने के कारण, इस किले को अभेद्य माना जाता था। महाकोट, यानी 54 गढ़ों वाली चार अलग-अलग दीवारें किले को घेरे रखती हैं जिसका घेरा लगभग 5 किमी का है। दीवारें लगभग 6 से 9 फुट मोटी और 18 से 27 फुट ऊंची हैं। परिसर में मौजूद गोला-बारूद और अनाज के भंडार इस ऐतिहासिक और मज़बूत संरचना की सैर को और भी रोमांचक बना देते हैं। इसकी एक और दिलचस्प विशेषता है हाथी हौद, एक विशाल पानी की टंकी जिसकी क्षमता लगभग 10,000 घन मीटर है। आज, ये विशाल टंकी सभी को आश्चर्यचकित कर देती है। यहां आप 30 फुट ऊंचे चांद मीनार को भी देख सकते है। यहां की तुगलक युग का शाही स्नान की अनोखी और अति सुन्दर संरचना भी देखने योग्य है। इसमें मालिश कराने के कमरे, गर्म पानी और भाप से स्नान के लिए भी कमरे हैं, जिनके लिए पानी को अच्छे से व्यवस्थित टंकियों, नहरों, नलिकाओं और वेंटिलेटर आदि से पहुंचाया जाता था।पर्यटकों को यहां किले के कई हिस्सों के अवशेष देखने को मिल सकते हैं, जैसे किले के बाहर की खाई, किलेबंदी की दीवारें, सीढ़ियों वाले कुएं, दरबार की इमारत, भारत माता को समर्पित एक अनूठा मंदिर, प्रजा के लिए एक सार्वजनिक दीवान/कक्ष, पानी के कुंड और पत्थरों को काट कर बनाया मार्ग। हाल ही में की गई खुदाई से शहर का एक निचला हिस्सा भी सामने आया जिनमें कई बड़े मार्ग और गलियां थी।औरंगाबाद से एलोरा के रास्ते पर स्थित इस किले का निर्माण एक यादव शासक, राजा भिल्मा 5, ने वर्ष 1187 में करवाया था। इस शहर को तब देवगिरि, यानी देवताओं के पहाड़ी निवास के रूप में जाना जाता था। इसके सामरिक महत्व के कारण, इस भव्य किले को जीतने की लालसा कई प्रभावशाली शासकों में पूरे इतिहास में रही। दिल्ली के शासक मुहम्मद तुगलक इस किले से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने शहर का नाम बदलकर दौलताबाद, यानी धन का शहर, रख दिया और अपने दरबार और राजधानी को यहीं लाने का फैसला किया। दिल्ली की पूरी आबादी को यहां लाया गया था। बाद में यह बहमानी शासकों के तहत हसन गंगू से लेकर अहमदनगर के निज़ाम शाहियों के अधिकार में रहा। इसके बाद भी, मुगल बादशाह औरंगज़ेब ने इस किले पर कब्ज़ा करने से पहले इसकी चार महीने तक घेराबंदी की थी। बाद में मराठों ने इसे हथिया लिया था और फिर वर्ष 1724 ई. में हैदराबाद के निज़ामों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया।

दौलताबाद किला

खरीदारी

यहाँ के हथकरघे के उत्पादों की काफ़ी ज़्यादा रेंज है जो औरंगाबाद आने वाले खरीदारों को काफ़ी लुभाती है। यहां कई अनोखी चीजें खरीदी जा सकती हैं, जैसे कि हिमरू शॉल जिसमें ढीले रेशम की एक ज़्यादा परत होती है, जो इन्हें इतना नरम बना देती है कि जो लगभग रेशम जैसा अहसास कराता है। कुछ लोकप्रिय हिमरू चीजें जो आप खरीद सकते हैं, वे हैं शॉल, तकियाखोल, जैकेट, चादर, कोट और पर्दे। यदि आप औरंगाबाद में हैं तो आपको एक पैठणी साड़ी ज़रूर लेनी चाहिए। शानदार बुनाई वाली इन साड़ियों की यह विशेषता है कि ये दोनो तरफ और पाड़ और पल्लू, पर बिल्कुल एक सी दिखती है। एक साड़ी को बनाने में लगभग एक या दो महीने का समय लगता है और इसको बुनने में हाथ, पैर और आंखों के बीच सटीक मेलजोल चाहिए। जहां एक रंग के धागे का उपयोग लंबाई दिशा पर किया जाता है, वहीं दूसरे रंग का उपयोग चौड़ाई दिशा पर किया जाता है। इससे साड़ी को रोशनी में चमकने की क्षमता मिलती है जिससे इसमें झिलमिलाते सुंदर रंग उभर कर सामने आते हैं। ऐसा लगता है कि मानो साड़ी अपना रंग बदल रही हो। कागज़ीपुरा गांव का एक अनोखा हाथों से बना कागज़ भी खरीदने योग्य है। कागज़ बनाने की यह कला लगभग 700 साल पुरानी बताई जाती है, जो दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक के समय की है। यहां का एक और आकर्षण बीदरीवेयर है और इसकी तश्तरियां, कटोरे, फूलदान, ऐशट्रे, आभूषण आदि जैसी कई वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं, जो तांबे पर सोने और चांदी के धागों से जड़ाई का काम कर बनाई जाती हैं।

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