गुरु नानक जयंती सिखों के सबसे प्रतिष्ठित त्योहारों में से एक है। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी की जयंती 12 नवम्बर, 2019 को मनाई जाएगी। इस भव्य उत्सव को देखने के लिए जब समस्त देशवासी विभिन्न गुरुद्वारों में उमड़ पड़ते हैं, ऐसे में हम सिख धर्म से जुड़े उन पावन स्थलों का उल्लेख कर रहे हैं, जहां पर कभी गुरु नानक देव जी के कदम पड़े थे।

ऐसा कहा जाता है कि सिख धर्म की नींव एक बहुत ही पावन दिवस पर रखी गई थी, जब गुरु नानक देव जी पंजाब में स्थित एक छोटी नदी काली बेईं में स्नान करने गए थे। किंवदंती है कि वापसी पर उनका आत्मसात परमात्मा के साथ हुआ था। इसके पश्चात् ही उन्होंने दुनिया को सिख धर्म से परिचित कराया। नानक के शब्दों ने समाज के सभी वर्गों के हज़ारों लोगों - किसानों, राजनेताओं, आम आदमी, सैनिकों इत्यादि के जीवन को प्रभावित किया। गुरु नानक ने पूरे देश में अपना दिव्य सन्देश दिया। जहां-जहां गुरु नानक अपना सन्देश देने गए, उनके सम्मान में वहां पर गुरुद्वारे और मंदिर स्थापित किए गए। नानक ने जो यात्राएं कीं, उन्हें ओडिसी या उदैसिस कहा जाता है। आज, दुनिया भर के भक्तगण गुरु नानक देवजी की दी गई शिक्षाओं एवं उपदेशों का अनुसरण करते हैं। ये लोग परमात्मा से जुड़ने का अनुभव पाना चाहते हैं तथा उन आध्यात्मिक शक्तियों से अभिभूत होना चाहते हैं, जिन्होंने कभी गुरु नानक देवजी ने अनुभूत किया था।

पहली ओडिसी/उदैसी (1500-1506)
गुरु नानक देवजी ने लगभग सात वर्षों तक यह यात्रा की और वह कुरुक्षेत्र, दिल्ली, हरिद्वार, वाराणसी, पटना, गया, असम, कटक एवं अन्य शहर  गए।

गुरुद्वारा बावली साहिब, कुरुक्षेत्र
सूर्य ग्रहण के दौरान, नानक ने कुछ समय के लिए कुरुक्षेत्र में डेरा डाला और वहां पर उस समय के आध्यात्मिक नेताओं के साथ वार्तालाप किया। आज, पेहोवा में स्थित गुरुद्वारा बावली साहिब इस शहर में गुरु नानक देवजी द्वारा की गई यात्रा की याद को समर्पित है।

तख्त श्री हरमंदिर साहिब, पटना
हरिद्वार और वाराणसी में कुछ समय ठहरने के पश्चात् गुरु नानक देवजी पटना गए थे। वहां पर उन्होंने अपने अनुयायियों को सन्देश दिया था। वर्तमान में यहां पर सिखों का सबसे प्रसिद्ध प्रार्थना-स्थल, तख्त श्री हरमंदिर साहिब अथवा पटना साहिब स्थित है। यह गुरुद्वारा सबसे अधिक पूजे जाने वाले सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह की जन्मस्थली है। यह गुरुद्वारा पटना के चैक क्षेत्र में पुराने क्वार्टर की भीड़-भाड़ वाली हरमंदिर गली में स्थित है। इसे सिख धर्म के पांच तख्तों में से एक माना जाता है। इसे पंजाब के प्रसिद्ध षासक महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था।
इस गुरुद्वारा में गुरु गोबिंद सिंह के कई निजी सामान विद्यमान है। इसमें लोहे के चार तीर, हथियार, एक जोड़ी चप्पल, और एक पंगुरा (पालना) है, जिसके चारों कोने पर सोने की परत चढ़ी है। यह बचपन में गुरु गोबिंद सिंह का पालना हुआ करता था। गुरु गोबिंद सिंह और गुरु तेग बहादुर द्वारा लिखी गई किताब ‘‘हुक्मनामा‘‘ भी यहीं रखी हुई है। गुरुनानक जयंती के उत्सव के दौरान इस गुरुद्वारे में भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। 

गुरुद्वारा दातन साहिब, कटक
प्राचीन महानदी नदी के तट पर निर्मित, यह गुरुद्वारा गुरु नानक देव की कटक यात्रा की याद में बनवाया गया था। गुरुद्वारा में हर दिन सामूहिक प्रार्थना और कीर्तन होते हैं, जब सिखों के पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब को ध्यान कक्ष में रखा जाता है। गुरु नानक जयंती के अवसर पर, यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालुगण इकट्ठा होते हैं और पवित्र ग्रंथ का पाठ सुनते हैं।

गुरुद्वारा बंगला साहिब, दिल्ली
गुरु नानक देवजी थोड़े समय के लिए दिल्ली में रुके थे। इस यात्रा की याद में यहां पर गुरुद्वारा बंगला साहिब का निर्माण कराया गया था। सिखों के दिल में जिसकी बहुत श्रद्धा है और उनके लिए यह एक विशेष तीर्थस्थल है। हलचल भरे इस बाज़ार के बीच में एक शांत स्थान है, गुरुद्वारा बंगला साहिब, जो संभवतः कनॉट प्लेस का सबसे लोकप्रिय आकर्षण है। एक मील की दूरी से ही इसका धूप में चमकता सुनहरा गुम्बद दिखाई देता है। जैसे ही आप इसके परिसर में प्रवेश करते हैं, आपको एक अद्भुत शांति की भावना का एहसास होता है। इसके गर्भगृह में श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद, आप गुरुद्वारे के शांत और खूबसूरत तालाब की परिक्रमा कर सकते हैं। इसकी अन्य प्रमुख विशेषताओं में यहां का रसोई क्षेत्र, एक बड़ी आर्ट गैलरी और एक स्कूल है। यहां आने वाले भक्तों को लंगर (पवित्र भोजन) खिलाया जाता है। यह भोजन उन गुरुसिखों द्वारा तैयार किया जाता है जो यहां पर सेवादार होते हैं। किंवदंती है कि गुरुद्वारे का यह क्षेत्र एक समय में जयसिंहपुरा महल था, जो अम्बर के शासक राजा जय सिंह का निवास स्थान हुआ करता था। कहा जाता है कि सन् 1664 में, सिखों के आठवें गुरु, गुरु हर कृष्ण साहिब, इस महल में रहा करते थे। 


दूसरी ओडिसी/उदैसी (1506-1513 ईस्वी)
इस यात्रा ने सात साल का समय लिया और इस दौरान गुरु नानक देव जी धनश्री घाटी और सांगलादीप (सीलोन), और दक्षिण भारत के
क्षेत्रों में गए।

गुरु नानक झीरा साहिब, बीदर
गुरुद्वारा बीदर सिख समुदाय के लिए सबसे पवित्र स्थानों में से एक है और इसीलिए विशेषकर नवम्बर और मार्च के महीनों के दौरान श्रद्धालुगण बड़ी संख्या में यहां आते है। स्थानीय किंवदंती के अनुसार, जब यह क्षेत्र एक भयानक अकाल की चपेट में था, तब गुरु नानक ने इस स्थान का दौरा किया था और एक मखाराला चट्टानों के एक पहाड़ से चमत्कार पूर्वक पानी के झरने का निर्माण किया। इस झरने ने लोगों की प्यास को बुझाया और इस विष्वास को जन्म दिया कि जो पानी का स्रोत गुरु की आज्ञा पर फूटता है वह अनेकों बीमारियों को ठीक करने में सक्षम होता है। गुरुद्वारा नानक झीरा का षांत वातावरण उसके प्राकृतिक परिवेश द्वारा और अधिक सुरम्य हो जाता है, जिसमें एक सरोवर और एक अमृत कुंड अर्थात मीठे पानी का तालाब शामिल हैं। यहां लगने वाले लंगर अर्थात सामुदायिक रसोईघर में, गुरुद्वारे में आने वाले सभी लोगों के लिए गर्म और पौष्टिक भोजन परोसा जाता है और यहां देश के सभी कोनों से गुरुद्वारे में आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए साफ़ कमरे भी उपलब्ध हैं।

सचखंड श्री हुजूर साहिब, नांदेड़
यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि गुरु नानक देवजी कभी महाराष्ट्र गए थे अथवा नहीं, फिर भी सिख समुदाय के लिए नांदेड़ पवित्र शहरों में से एक है। यहां बने गुरुद्वारे में गुरु गोबिंद सिंह से संबंधित अनेक वस्तुएं रखी गई हैं। इनमें सुनहरा खंजर, तोड़ेदार बंदूक, स्टील का कवच तथा सोने की पांच तलवारें शामिल हैं। इस गुरुद्वारे का निर्माण महान सिख शासक महाराजा रणजीत सिंह ने उस स्थान पर करवाया था, जहां पर गुरु गोबिंद सिंह ने अपनी आखिरी सांस ली थी। मान्यता है कि यही वह जगह है, जहां पर गुरुगद्दी श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को सौंपी गई थी। गुरु गोबिंद सिंह जी को यह अहसास होने लगा था कि प्रत्येक इंसान, चाहे वह उनकी तरह ही क्यों न हो, वह नश्वर है, मगर श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में जो विचार एकत्र किए गए हैं, वे कभी नहीं मिट सकते। पवित्र ग्रन्थ को गुरु का दर्जा देते समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने नांदेड़ को ‘अबचल नगर’ यानी अविचल अर्थात् कभी विचलित न होने वाला स्थान कहा था। ‘सचखंड’ का अर्थ है सत्य का क्षेत्र। यह नामकरण यहां पर ईश्वर के निवास को निरुपित करने के लिए था। सिख धर्म में पांच पवित्र तख्तों या सिंहासनों को मान्यता दी गई है। यह गुरुद्वारा, जिसे तख्त साहिब भी कहा जाता है, उन पांचों में से सबसे अधिक पवित्र माना गया है। यह गोदावरी नदी के समीप स्थित है। चमकते सफ़ेद संगमरमर के पत्थरों से बने इस गुरुद्वारे का गुम्बद सोने से ढका हुआ है। इस परिसर में दो और पवित्र स्थान भी हैं। पहला है बंगा माई भागो जी, जहां पर पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब विराजमान हैं और दूसरा है अंगीठा भाई दया सिंह और धर्म सिंह (जो कि गुरु के पांच प्यारों में से दो थे)। यह परिसर दो मंज़िला है और इसकी साज-सज्जा अमृतसर के श्री हरमंदिर साहिब या स्वर्ण मंदिर जैसी ही है। इसका आंतरिक कक्ष अंगीठा साहिब कहलाता है। इसकी दीवारों पर सोने की परतें चढ़ाई गई हैं। यह आंतरिक कक्ष संगमरमर से सुशोभित है, जिन पर फूल-पत्तियों की सजावट की गई है। इसकी दीवारों और छतों पर प्लास्टर और टुकड़ियों से कारीगरी की गई है।
दिन के समय श्री गुरु ग्रन्थ साहिब को इस आंतरिक कक्ष से बाहर वाले कक्ष में लाया जाता है और रात के समय वापस अंदर वाले कक्ष में ले जाते हैं।

तीसरी ओडिसी/उदैसी (1514-1518 ईस्वी)
यह यात्रा पांच वर्षों तक चली। इस दौरान गुरु नानक ने उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेष, लद्दाख एवं तिब्बत की यात्रा की थी।

नानकमत्ता, उत्तराखंड
सिखों का एक प्रमुख तीर्थ स्थल, नानकमत्ता देवहा नदी के तट पर स्थित है। कहा जाता है कि जब गुरु नानक देवजी यहां आए थे, तब इसका नाम गोरखमत्ता से बदलकर नानकमत्ता कर दिया गया था। यह गुरुद्वारा इस क्षेत्र में स्थित तीन प्रमुख गुरुद्वारों में से है। अन्य दो गुरुद्वारा रीठा साहिब और गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब हैं।

हेमकुंड साहिब, उत्तराखंड
हेमकुंड साहिब, गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब के रूप में भी जाना जाता है, जो सिख समुदाय के लिए एक अत्यंत पूजनीय तीर्थस्थल है। ऐसा माना जाता है कि सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने यहां 10 साल ध्यान में बिताए थे। धार्मिक स्थल की लोकप्रियता को और बढ़ाता है गढ़वाल हिमालय से घिरा इसका मनमोहक स्थान। हेमकुंड साहिब, हेमकुंड पर्वत की चोटियों के बीच स्थित है। हेमकुंड नाम का अर्थ है बर्फ की झील और इसका पानी वास्तव में बर्फ की तरह ठंडा है। अक्टूबर और अप्रैल के बीच सर्दियों के मौसम में इसे बंद किए जाने से पहले देश के कोने-कोने से बड़ी संख्या में भक्त गुरुद्वारा में माथा टेकने आते हैं। सिख तीर्थयात्री गुरुद्वारे में पगडंडी की मरम्मत
कराने में मदद करते हैं, जो अक्सर सर्दियों के मौसम के बाद क्षतिग्रस्त हो जाती है। गुरुद्वारे में एक सुंदर झील भी है, जहां श्रद्धालु पवित्र डुबकी लगाते हैं।

पौंटा साहिब, हिमाचल प्रदेश
सिखों के दसवें गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह की स्मृति में समर्पित, पौंटा साहिब एक अनोखा शहर है, जो आध्यात्मिकता के साथ गूंजता प्रतीत होता है। इस शहर का मुख्य आकर्षण एक राजसी गुरुद्वारा है, जो पूरे वर्ष बड़ी संख्या में सिख तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है। ऐसा कहा जाता है कि इसका मंदिर गुरु के कई हथियारों की रक्षा करता है। गुरुद्वारे में एक सुंदर सोने की पालकी, दर्शन के लिए रखी गई है और माना जाता है कि यह भक्तों द्वारा दान में दी गई थी। गुरुद्वारे के अंदर, श्री तालाब साहिब और श्री दस्तार अस्थाना महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। श्री दस्तार अस्थाना, पगड़ी बांधने की प्रतियोगिताओं के लिए प्रसिद्ध है। गुरुद्वारा के अंदर एक और लोकप्रिय स्थल कवि दरबार है, जहां कविता प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। सभी गुरुद्वारों की तरह, यहां पर परोसा जाने वाला लंगर (सांप्रदायिक रसोई का भोजन) भी सभी के लिए खुला है।

गुरुद्वारा पत्थर साहिब, लेह
गुरु नानक देवजी की लेह यात्रा की याद में बना गुरुद्वारा, गुरुद्वारा पत्थर साहिब लेह-कारगिल सड़क पर स्थित है। यह गुरुद्वारा सिख धर्म के इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण घटना से जुड़ा हुआ धर्म स्थल है। ऐसा माना जाता है कि सन् 1515-18 के दौरान जब गुरु नानक सिक्किम, नेपाल और तिब्बत की यात्रा करने के बाद श्रीनगर के रास्ते पंजाब लौट रहे थे, तब उन्होंने इस स्थान पर विश्राम किया था। जब वह लेह पहुंचे तो वह यहां ध्यान करने बैठे थे। उस समय की किंवदंती है कि यहां पर, गुरु नानक ने एक राक्षस को परस्त किया, जो उन्हें एक भारी पत्थर से कुचलने की कोशिश कर रहा था। हालांकि राक्षस ने जिस पत्थर को लुढ़काया था, वह पिघल गया और गुरु नानक को मारने के बजाय उनके ही आकार में बदल गया था। सन् 1970 में एक ऐसा बड़ा पत्थर खोजा गया था, जिसके बारे में माना जाता है कि यह गुरु नानक की इस कहानी का ही हिस्सा है। इसके बाद भारतीय सेना ने स्थानीय लोगों की मदद से गुरु नानक को माथा टेकने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए, इस गुरुद्वारे का निर्माण कराया था। अब इस मार्ग से गुज़रने वाली सभी कारों के सवार लोग स्वयं पूर्ण आस्था के साथ प्रार्थना करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं। हर रविवार को भारतीय सेना के अधिकारी यहां सार्वजनिक सेवा के लिए आते हैं।


चैथी ओडिसी/उदैसी (1519-1521 ईस्वी)
गुरु नानक देवजी मक्का और अरब देषों की यात्रा पर भी गए थे। यह यात्रा तीन वर्षों तक जारी रही थी।

पांचवीं ओडिसी/उदैसी (1523-1524 ईस्वी)
यह यात्रा दो साल तक चली और गुरु नानक देवजी ने इस दौरान पंजाब के आसपास के स्थानों का दौरा किया। इसके बाद वह एक किसान के रूप में करतारपुर में बस गए। पंजाब के कुछ लोकप्रिय सिख तीर्थ स्थल अमृतसर में स्थित हैं।

स्वर्ण मंदिर, अमृतसर
अमृतसर यहां स्थित सुंदर एवं अत्यधिक सम्मानित स्वर्ण मंदिर या श्री हरमंदिर साहिब के लिए विश्व प्रसिद्ध शहर है। यह देश के बेहद लोकप्रिय आध्यात्मिक गंतव्यों में से एक है। यह मंदिर दो मंज़िला है, जिसका आधा गुम्बद 400 किलोग्राम विशुद्ध सोनपत्र से सुसज्जित है। इसके कारण इसका अंग्रेज़ी में गोल्डन टेम्पल नाम पड़ा। ऐसा माना जाता है कि सिख साम्राज्य के नेता महाराजा रणजीत सिंह ने 19वीं सदी में इसके निर्माण का जिम्मा उठाया था। मंदिर का शेष परिसर सफेद संगमरमर से बनाया गया था। इसमें बहुमूल्य तथा कम कीमती रत्न जड़े गए थे। भित्तिचित्र बनाने के लिए पच्चीकारी तकनीक का उपयोग किया गया था। इस शानदार मंदिर का विशाल आकार सभी को प्रभावित करता है।

स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले श्रद्धा-स्वरूप किसी भी महिला अथवा पुरुष को अपना सिर ढकना होता है तथा अपने जूते उतारने पड़ते हैं। जब कोई यहां मधुर गुरुवाणी सुनता है तब मंदिर में व्याप्त आध्यात्मिक शांति आत्मा तक को संतुष्ट कर देती है। कोई भी व्यक्ति वहां मिलने वाला गुरु का लंगर खा सकता है। यहां जाति, धर्म या लिंग का भेदभाव किए बिना प्रतिदिन लगभग 20 हज़ार लोगों को निःशुल्क भोजन कराया जाता है। लंगर की समस्त प्रक्रिया कारसेवकों द्वारा पूरी की जाती है तथा यह सबसे सादगीपूर्ण अनुभवों में से एक हो सकता है।
इस शानदार स्वर्ण मंदिर के चारों ओर अमृत सरोवर है, जिसके संबंध में कहा जाता है कि इसके पानी में रोग निवारक शक्तियां हैं। इस झील में रंग-बिरंगी मछलियां तैरती देखी जा सकती हैं, श्रद्धालु इसके साफ नीले पानी में डुबकी लगाते हैं। सिखों के मूल सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही स्वर्ण मंदिर का डिज़ाइन तैयार किया गया है, जो सार्वभौमिक भाईचारे एवं सभी लोकाचारों के समावेश का पक्षधर है। इसलिए, यह सभी दिशाओं से एक समान दिखाई देता है। इसके मुख्य द्वार पर शानदार क्लॉक टॉवर बना हुआ है, जिसमें सिखों का मुख्य संग्रहालय भी है। यहां से स्वर्ण मंदिर का नायाब परिदृश्य  देखा जा सकता है, जिसकी झलक अमृत सरोवर में पड़ती है। एक अन्य प्रविष्टि भव्य रूप से सुशोभित दर्शनी द्योढ़ी के चांदी के द्वारों से होती है, जो पवित्र मंदिर को जाने वाले उस रास्ते से जुड़ता है, जिससे मंदिर की परिक्रमा की जाती है।

परिसर के उत्तर-पश्चिम छोर पर जुबी वृक्ष भी है। ऐसी मान्यता है कि 450 वर्षों पहले स्वर्ण मंदिर के पहले उच्च ग्रंथी बाबा बूढ़ा जी ने यह पेड़ लगाया था। सिखों के पवित्र ग्रन्थ- गुरु ग्रन्थ साहिब को दिन में स्वर्ण मंदिर के भीतर रखा जाता है। रात को, इसे अकाल तख्त में रख दिया जाता है।


अकाल तख्त, अमृतसर
अकाल तख्त, सिख धर्म के पांच आधिकारिक तख्तों में से एक है। ‘अकाल’ शब्द का अर्थ अनंत समय तथा ‘तख्त’ का मतलब सिंहासन होता है। अतः इसका शाब्दिक अर्थ ‘अमर सिंहासन’ होता है। सिखों के छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद जी ने अकाल तख्त का निर्माण करवाया था। उन्होंने सन् 1605 में इसकी आधारशिला रखी थी। इसे 17वीं तथा 18वीं सदी में शासकों के अत्याचार व न्याय का प्रतिनिधित्व करने के प्रतीक के रूप में बनवाया गया था। यह खालसा का पहला सर्वोच्च तख्त है, जो सिखों का सैन्य व नागरिक प्राधिकरण है। उस समय सिख योद्धाओं द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले हथियार भी यहीं पर रखे जाते थे। अकाल तख्त स्वर्ण मंदिर परिसर में ही स्थित है। यह इमारत दर्शनी द्योढ़ी  के सामने स्थित है, उस समय यहां से स्वर्ण मंदिर जाते थे।


बाबा अटल राय टाॅवर, अमृतसर
बाबा अटल राय टाॅवर स्वर्ण मंदिर के दक्षिण में स्थित है। 40 मीटर ऊंचा यह बुर्ज नौ मंज़िला है, जो अमृतसर की सबसे ऊंची इमारतों में से एक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सिखों के छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद के नौ वर्षीय पुत्र अटल राय ने अपने मृत मित्र मोहन को पुनर्जीवित कर दिया था। अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का प्रदर्शन करने के लिए गुरु हरगोबिंद ने नौ वर्षीय बालक को बहुत फटकारा था। कानून तोड़ने की भरपाई स्वरूप अटल राय ने समाधि ले ली थी। इस अष्टकोणीय बुर्ज की हर एक मंज़िल अटल राय के जीवन के हर साल को दर्शाती है। आरंभ में, यह इमारत एक बुर्ज के रूप में बनाई गई थी, किंतु फलतः इसे गुरुद्वारे में परिवर्तित कर दिया गया। इस बुर्ज के प्रथम तल पर गुरुनानक के जीवन से लिए गए परिदृश्यों को भित्तिचित्रों के माध्यम से दर्शाया गया है। बुर्ज की ऊपरी मंज़िल से अमृतसर शहर का व्यापक व मनोरम परिदृश्य देखा जा सकता है।

गुरुद्वारा श्री तरनतारन साहिब, अमृतसर
ऐसा माना जाता है कि यह इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन गुरुद्वारा है। सिखों के पांचवें गुरु, गुरु अर्जन देव ने गुरुद्वारा श्री तरनतारन साहिब का निर्माण करवाया था। ऐसा कहा जाता है कि पंजाब में स्थित सभी गुरुद्वारों में से केवल इसी के आसपास सबसे बड़ा जलकुंड है। गुरु अर्जन देव ने सन् 1590 में इस सुंदर गुरुद्वारे की नींव रखी थी। इस गुरुद्वारे की एक अन्य विशेषता यह है कि केवल यही गुरुद्वारा स्वर्ण मंदिर का प्रतिरूप है। अमावस्या पर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालुगण एकत्रित होते हैं।

गुरु नानक देवजी ने 7 सितम्बर, 1539 को यह संसार त्याग दिया था। वह अपने पीछे एक विश्वास को छोड़ गए, जिसके अनुयायी दुनिया भर में पाए जाते हैं।