वर्ली जनजाति महाराष्ट्र क्षेत्र की सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है। ये मुंबई के बाहरी इलाके उत्तर सह्याद्री क्षेत्र में रहती हैं। जनजाति की महिलाएं स्वदेशी पेंटिंग करती हैं, इस कला को 'वर्ली ट्राइबल वॉल पेंटिंग' कहा जाता है। ये आमतौर पर घरों की मिट्टी की दीवारों पर की जाती है। इस कला के रूप का पता 10 वीं शताब्दी ईस्वी में लगाया गया था, लेकिन इसकी खोज और पहली बार इसे प्रशंसा मिली 70 के दशक में। यह आमतौर पर सामान्य जीवन की दिनचर्या और परिवेश से प्रेरणा लेता है। दहानू, मोखदा, तलासरी और पालघर जिले के इलाकों में रहने वाली जनजातियों का मानना है कि प्रकृति सबसे अच्छी शिक्षक है और सबसे बड़ी दाता भी। दैनिक जीवन की गतिविधियां जैसे खेती, भोजन एकत्र करना, ग्राम जीवन, प्रकृति और वन्य जीवन से इसका जुड़ाव इस प्रजातीय कला की विशिष्टताएं हैं। चित्रों में उपयोग किए जाने वाले रंग और सामग्री प्रकृति से ही ली गई है-मेंहदी से भूरे और नारंगी, नील से नीला, ईंटों से लाल और मोटे चावल के पेस्ट से सफेद रंग बनाए गए हैं। चित्रों को बनाने के लिए सावधानी से तराशी गई बांस की छड़ियों को पेंट ब्रश के रूप में उपयोग किया जाता है।

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