असम का जिक्र हो और बिहु नृत्य का जिक्र न आये, तो बात अधूरी सी रह जाती है। क्योंकि यह नृत्य उत्तर-पूर्व क्षेत्र की पहचान का पर्याय बन चुका है। यदि असम के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि पहली बार बिहु नृत्य का प्रदर्शन सन 1694 में किया गया था। उस समय यहां आहोम शासक रुद्रसिंहा (1696 से 1714) का शासन था, जिन्होंने बिहु नृतकों को रोंगली बिहु के खास पर्व पर आमंत्रित किया था। मुख्यतः अप्रैल माह में मनाये जाने वाले सालाना बिहु जलसे में यह नृत्य प्रस्तुत किया जाता है और असम का यह सबसे प्रचलित लोक नृत्य है। हर्ष और उल्लास का प्रतीक यह नृत्य पूरी तरह से पारंपरिक वेशभूषा में किया जाता है, जिसमें स्त्री और पुरुष समान रूप से हिस्सा लेते हैं। यहां के स्थानीय लोक संगीत की थाप पर नृतकों के कदम ताल से ताल मिलाते हुए थिरकते हैं, तो दर्शक उन्हें देखते ही रह जाते हैं। बिहु नृत्य असम के विभिन्न जातीय समूहों जैसे देओरी, सोनोवाल कछारी, मरान, बोराही आदि की परंपरा का अभिन्न अंग है। राज्य में बिहु नृत्य के तीन उत्सव- रोंगली बिहु, कोंगली बिहु और भोगल बिहु, मनाये जाते हैं, जिनमें से रोंगली बिहु के दौरान वसंत के आगमन की खुशी में बिहु नृत्य युवा महिलाओं और पुरुषों द्वारा किया जाता है। यह नृत्य करते समय कलाकार पारंपरिक मेखला चादोर पहनते हैं, जिसमें मेखला को कमर के नीचे के हिस्से पर लपेटा जाता है, जबकि चादोर को शरीर के ऊपरी हिस्से पर शाल की तरह ओढ़ते हैं। यह पारंपरिक वेशभूषा मुख्यतः प्रसिद्ध असम सिल्क मूंगा या मूगा से बनाई जाती है। महिला नृतक खुद को पारंपरिक आभूषणों से सजाती हैं तथा अपनी चोटी में रंग-बिरंगे फूल गूंथती हैं। अपनी विशिष्ट शैली की वजह से यह नृत्य ना केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी बहुत प्रसिद्ध है और सन 2012 में लंदन में हुए ओलंपिक खेलों में असमिया लोक नृतकों द्वारा बिहु नृत्य प्रस्तुत किया गया था। 

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